Wednesday, May 14, 2008

गुलाबी शहर में सात धमाके



दिनांक : 13 मई, 2008
दिन : मंगलवार
समय : शाम 7.30 बजे
शहर : ये वो शहर है जहां श्रद्धा लोगों का आम जज़्बा है
और जहां की गुलाबी फिज़ा उसकी कहानी कहती है, जी हां जयपुर।


वक्त किसी का सगा नहीं हुआ, सो जयपुर कैसे इससे अलग रह सकता था। यहां भी वही हुआ, जो देश के दूसरे कई शहरों ने झेला और उससे कहीं ज्यादा इस देश की जनता ने झेला है। शहर की दीवारें और लोग सात धमाकों से दहल गये और शहर की गुलाबियत देखते ही देखते लाल हो गयी। सिर्फ आधे घंटे का समय लगा, जब सनसनीखेज ख़बरों से दूर रहने वाला ये शांत शहर, देश के मीडिया पर तहलका मचा गया। कुछ ज्यादा ही निश्चिंत हो गया था शहर। यहां के लोग, तंत्र और सरकार भी। कई बार आगाह किया गया कि बांग्लादेशी आतंकवादियों से शहर को ख़तरा है। लेकिन न ही हम चेते और ना ही तंत्र।

चलते फिरते लगभग 70 लोग चिथड़ों में तब्दील हो गये। 200 लोग अस्पतालों में डॉक्टरों के मरीज़ों की फेहरिस्त में शामिल हुए और न्यूज कह रही थी कि फिलहाल मरने वालों की संख्या 70 है, लेकिन इसके 80 या 90 होने की उम्मीद है। आंकड़ों के बढ़ने का इंतज़ार? मोबाइलधारियों के फोन घनघनाने लगे। सामने से चिंता की आवाज़ें उभरतीं और इधर से खैरियत का भरोसा दिलाने की कोशिश। जिस रिक्शे वाले के पास बम विस्फोट हुआ, उसके पास मोबाइल नहीं था, वरना वह भी बजता। भले ही उसका मृत शरीर अब पहचाना भी न जा सके।

खैर, शहर के भीड़भाड़ वाले इलाकों में अभी भी भीड़ बरकरार थी। लेकिन पुलिस और तंत्र के ऊपरी लोगों की भीड़, जो आम तौर पर ऐसे इलाकों से नदारद रहती है। चुनावी दौरों के सिवाय। केन्द्र ने राज्य को कोसा और राज्य ने केन्द्र को। एक आया सरकार को कोस गया, दूसरा आया पुलिस तंत्र को कोस गया, तीसरा आतंकवादियों को कोस गया, चौथा अपराधियों को नहीं बख्शने की बात कह गया। नया नहीं था। कुछ जाना पहचाना सा लगा। पिछले विस्फोट के बाद के एपिसोड से कुछ मिलता जुलता।

इधर, न्यूज रूम में हलचल है कि आखिर कितने मरे? कौन-सा रिपोर्टर फोन लाइन पर है? भाई फलां फलां... मंत्रियों से बात करो... वहां मौजूद लोगों से बात करो। पुलिस अधिकारियों से बात करो। काश कि वो विस्फोट में मरे लोगों से भी बात कर पाते। उनसे ज्यादा सनसनी और इमोशन तो और कोई नहीं डाल सकता है न?

खैर कुछ देर में एक और खबर आयी। मरने वालों को ज़िंदगी के बदले पांच लाख और घायलों की पीड़ा पर एक लाख का मरहम। हर विस्फोट में आंकड़ों से कई ज्यादा मरे हैं और कहीं ज्यादा आहत हुए हैं, लेकिन सुरक्षा का मरना या मन का आहत होना, आंकड़ों का हिस्सा नहीं होते। उस पर आश्वासनों के हजारों मरहम लगते हैं, लेकिन ये घाव नहीं भरते। नासूर हो जाते हैं। आतंकियों ने भले ही खास दिन निश्चित किया था, खास जगहें भी चुनी, लेकिन मौत ने जात नहीं देखी। सभी को लील गयी। जनाजे भी उठ रहे हैं, तो शवयात्राएं भी जयपुर की सड़कों का हिस्सा हुई हैं। सबकी कहानी एक। किसी का बेटा उठा तो किसी का बाप। किसी का सुहाग तो किसी की मां का आंचल।

मीडिया में ख़बरें और भी हैं और रहेंगी। कुछ दिनों बाद हम ये सारा मंज़र भूल जाएंगे। जनजीवन सामान्य हो जाएगा। आखिर भूलना जरूरी भी तो है। अगली बार फिर ऐसे एपिसोड देख कर पुरानी बातें और आज का खौफनाक मंज़र याद करने के लिए!

तरूश्री शर्मा

3 comments:

life said...

i am agree with u

Manish Kumar said...

हर साल किसी ना किसी शहर पर ये हमले होते हैं और निर्दोष जनता मारी जाती है। समझ नहीं आता इस सिलसिले का कभी अंत होगा भी या नहीं।

आशीष जैन said...
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