Friday, March 20, 2009

वक्त लगा पर किस्सा खत्म हुआ



(उलझा उलझा सा है बहुत कुछ। कई बार दिमाग इतने गहरे और उथले स्तर पर किलोलें करता है कि भाव पकड़ना मुश्किल हो जाए। ऐसे ही किसी चंचल और व्यग्र वक्त को शब्दों में पकड़ने की कोशिश।)

कई कई दिनों की बेचैनी और आए दिन की कलह... बादल छंटने को हैं। रिश्ते की डोर को कब तक उलझाए रखा जाए। दर्द था कि दवा बनता ही नहीं था... उल्टे दिन पर दिन जहर होता जाता। 

क्या सोच के सिरे इतने कड़े हो सकते हैं या डर का शिकंजा इतना मजबूत कि इंसान अपने आप से दूर होता चला जाए... अपनी सुविधाओं तक को ताक में रख दे और बेंइंतहा मोहब्बत तक इस ऊहापोह में दम तोड़ दे... 

ये उसके जीवन का पहला अनुभव था।
क्या अपनी सोच से बनी काल्पनिक दुनिया की दीवारें इतनी मजबूत हो सकती हैं कि कोई उन दीवारों पर सिर फोड़ फोड़ 
कर मर जाए...पर वे ना टूटें। परम्पराएं और उससे निकलने के तर्क भोंथरे होने लगें और इस भोंथरी धार पर जिंदगी के सपने कट-कट कर लहुलुहान हो जाए...


सबसे ऊपर इस सबमें आदर्श नीतियों का कोई पुट नहीं,
स्थिति के विश्लेषण की कोई सम्भावना नहीं... फिर इसे सही ठहराएं तो कैसे?

वो कोई स्थिति नहीं जिसमें राहत की कोई किरण नजर आती हो लेकिन सामने वाला आपको उस नीम अंधेरे में सहज रहने की नसीहत दे...बिना किसी दिलासे के। बेहद मुश्किल होता है तर्कों की मजबूत डोर छोड़कर बिना किन्हीं तर्कों वाले मौन कमजोर तिनके से डूबने से बचाने की उम्मीद लगाना। 

ऐसा दिमाग तो कतई नहीं कर सकता, बेशक दिल का मामला ये जरूर हो सकता है। लेकिन दिल को भी खाद की जरूरत होती है.. दिलासे के दो बोल या हिम्मती बातें दिल पर हाथ तो जरूर रखती हैं। दिल धड़कने लगता है.... और हाथ उसे महसूस करने। 

हालांकि इस भाव में रहने की भी कोई उम्र तो होती होगी ना... उम्र पूरी हो गई... बिना किसी उम्मीद के पूरा हुए.... चलो एक किस्सा खत्म हुआ। 

दुखद या सुखद से इतर एक मिले जुले भाव वाला अंत। किसी नए किस्से के सुखद अंत की शुभकामनाएं दीजीए।