Saturday, June 28, 2008

मां से जाकर कह दूंगी....

वो वहां की थी जहां साधन थे लेकिन स्वतंत्रता नहीं। व्याकुलता थी लेकिन राहत का कोई उपाय नहीं। उसके पास पंख थे लेकिन उड़ने के लिए आसमान नहीं। वो चुप नहीं बैठी.... और अपने आस पास के बंधन तोड़कर खुले आसमान की ओर हसरत से देखने लगी।



मां से जाकर कह दूंगी,
बापू को समझा दूंगी
बंद घर के रोशनदान से,
ये छोटा आकाश नहीं देखूंगी।

विस्तृत नभ के विस्तार का,
मेरी आंखें वरण करेंगी।
आशाएं फिर पसर पसर कर,
मेरे मन में जगह करेंगी।
फिर मैं क्यों देखूं टूटा चांद,
मैं क्यों देखूं मुट्ठी भर गगन,
मैं क्यों देखूं गिनती के तारे,
जबकि मेरे भी हो सकते हैं,
ये सब ही सारे के सारे।


अधिकार मिलते नहीं कभी,
सजी थाली के आकारों में।
वो तो सिर्फ छीने जाते हैं,
चाहे हो वो परिवारों में।
अपने हक पाने को अब मैं,
पूरा जोर लगा दूंगी।
बंद घर के रोशनदान से,
ये छोटा आकाश नहीं देखूंगी।


वक्त की रेत मेरी मुट्ठी से,
फिसल कर फैली अभी नहीं है।
सपनों की दुनिया भी मुझसे,
अनजानी अनबोली नहीं है।
मन की जकड़न तोड़ के,
मैं अब विद्रोह की वीणा छेड़ूंगी।
बंद घर के रोशनदान से,
ये छोटा आकाश नहीं देखूंगी।

Monday, June 23, 2008

दुनिया जाए तेल लेने... ऐश तू कर।


मजा आता है जब लम्बे समय से चल रहे घिसे पिटे से रूटीन में कुछ बदलाव आता है। खासकर ऑफिस में हुए इस तरह के बदलावों के दौरान तो खूब मजा आता है.... आपको भी और लोगों को भी। बदलाव चाहे पॉजिटीव हो या नेगेटिव... बयानों और कानाफूसियों का वो दौर चलता है कि कुछ दिन तो सबकी बल्ले बल्ले। मुफ्त में गॉसिप का टॉपिक तो मिला ही साथ ही सामने वाले के मजे लेने का मौका भी। कुछ कोसने का दौर तो कुछ घूरती आंखें। पिछले दिनों कुछ ऐसे ही माहौल का आनंद उठाने का मौका मिला। मुझे अपने ही ऑफिस में इन दिनों नई जिम्मेदारी सम्भालने का मौका दिया गया है। मैं तो खूब एंजॉय कर रही थी लेकिन लोगों के तरह तरह के कमेंट्स मुझे और ज्यादा उत्साहित कर रहे थे। अपने राम तो बस इस थ्योरी पर चल रहे ते कि सुनो सबकी लेकिन करो मन की.... और वो भी खुशी खुशी। ये आनंद आप भी लेकर देखें।

Wednesday, June 18, 2008

अंगुलियों का गणित



अंगुलियां-
सारा हिसाब जानती हैं।
गिनती हैं दिन,
बुनती हैं संख्याएं,
अंदाज तोलती हैं,
जोड़ती हैं मुट्ठियां,
सारे भेद घटाकर,
और दुगुनी कर देती है,
हिम्मत हमारी।
अंगुलियां-
सारा हिसाब जानती हैं।
खींचती हैं रेखाएं,
आढ़ी टेढ़ी मुसीबतों की तरह,
तो कहीं परेशानी के वृत्त,
और गम लेकर कैद करती है,
आयतों में।
कभी कभी किसी चौखाने वर्ग में,
खड़ा कर लेती है खुद को।
शायद ये अंगुलियों का गणित है,
जिंदगी के साये में।
जटिल लेकिन सरल सा...
अंगुलियों का गणित।

Saturday, June 7, 2008

मां मुझे लोहा बना दो!!!!!


बलात्कार की खबरें...भले ही अंदर तक हिला देती हों, लेकिन आज भी घरों में मां अपनी बेटी को सुबह सवेरे उठने से लेकर रात को सोने तक यही हिदायतें देती है कि बेटा तेरी खूबसूरती कैसे निखर सकती है या कैसे तू गोरी और सुंदर बनी रहेगी...और हां... ठीक से रहा कर... आखिर ब्याह कराना है, खूबसूरती बहुत जरूरी है। कौन सिखाएगा कि बेटी अपने अंदर आग पैदा कर, खुद की सुरक्षा खुद कर, मन की खूबसूरती को जगा। लेकिन एक बेटी ने खुद ही खोजा आज की असुरक्षा से लड़ने का उपाय...

मां मुझे सांचे में ढालो,
मां मुझे लोहा बना दो।
तुम मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।

दो मुझे विद्रोह कि मैं,
तेरे सारे दुख जला दूं।
जला दूं हर हेय दृष्टि,
सोख लूं तानों की वृष्टि।
तुम मुझमें वो आग डालो,
मुझको अंगारा बना दो।
मां मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।

तुम मुझे फौलाद कर दो,
सबका सहारा बन सकूं।
ना लूं अवलम्ब किसी का,
ना मैं लिपटी लता बनूं।
बनूं मैं वृक्ष विशाल कि,
सूरज से सीधे लड़ सकूं।
तुम मुझमें फौलाद डालो,
मुझको इस्पाती बना दो
मां मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।

तरूश्री शर्मा

Friday, June 6, 2008

फीनिक्स,फीनिक्स...कहां गए थे?


परसों पड़ोस के दो छोटे छोटे बच्चे... उम्र छह और सात साल की होगी, शाम को अपने लॉन में खेलते कूदते बातें कर रहे थे। अंधेरा था और कमरे में गर्मी होने की वजह से मैं भी बाहर निकल आई थी, दोनों बच्चो को दीवार के इस पार मेरी उपस्थिति का एहसास नहीं था। खुले दिल से वैचारिक अंदाज में बात कर रहे थे... तुझे पता है पैट्रोल औऱ डीजल महंगा हो गया है।
दूसरा बोला- क्या बात कर रहा है?
पहला - क्या यार तू भी? न्यूज नहीं देखता क्या?
दूसरा - नहीं, मैं तो पापा के साथ अभी पेट्रोल पम्प पर गाड़ी में डीजल डलवाने गया था। खूब भीड़ लगी थी।
पहला - ओहो... तो भी तुझे पता नहीं लगा? आज रात बारह बजे से दाम बढ़ जाएंगे ना... तबी तो सभी पेट्रोल डीजल डलवा रहे हैं।
दूसरा - ओह... तभी पापा कह रहे थे अब घूमना फिरना कम करना पड़ेगा।
पहला - कोई फर्क नहीं पड़ता... दो दिन बाद सब भूल जाएंगे। फिर से घूमना फिरना शुरू हो जाएगा। तू चिंता मत कर।
मुझे आश्चयॆ हुआ एक अपनी उम्र से बड़े और एक बचपन में जीने वाले बच्चे की ये बातें सुनकर। एक माहौल को देखकर नतीजा भांपने वाला बच्चा और दूसरा उसी माहौल को जीकर भी अपने बचपन में मस्त सा। किसे सही बताउं... कुछ देर के लिए परेशान हो गई मैं। रोज टीवी इंटरनेट पर ढेर सारी सामग्री पढ़कर तो जैसे उनके बात करने के टॉपिक ही बदल गए हैं। खैर..चाहे जो हो इन बच्चों को अगर बबलू बबलू कहां गए थे? की जगह पर टेक्नो कविताएं सुनाई जाएं... तो शायद उन्हें खूब मजा आए। कुछ इस तरह....

फीनिक्स.....फीनिक्स,
कहां गए थे?
मंगल की सैर पर क्यों गए थे?
नासा ने तुमको भेजा,
इसलिए गए थे?
इतने सारे टी वी शो थे,
सब पर खूब सारे सेलीब्रिटी थे,
तुम क्यों एलियन्स से मिलने गए थे?
चांद पर घर बनाने की बात है यहां,
तुम मंगल पर जीवन खोज रहे थे?
तस्वीरें भेजो और खोदो जमीन,
हम तो इंटरनेट पर
हर दिन तुमको देख रहे थे।

तरूश्री शर्मा

Monday, June 2, 2008

रातों रात ऊंचा किया कद...

रात के समय कम कद वाली मूर्ति हटाई जा रही थी और सुबह होने तक शानदार और भव्य ऊंचे कद वाली मूर्ति वहां मौजूद थी। तो कैसा लगा आपको ये रातों रात कद बढ़ाने वाला फॉर्मूला? वास्तव में दृश्य कुछ वैसा ही था जैसा सद्दाम हुसैन की मूर्तियां गिराने के वक्त रहा था। एन डी टी वी के कमाल खान के अनुसार, अंतर सिर्फ इतना था कि सद्दाम की वो स्थिति सब कुछ खोने के बाद हुई थी और मायावती की मूर्ति ढहाने के वक्त वो अपनी ज्यादा ताकत के साथ मौजूद थीं। मेरी नज़र में अंतर ये भी था कि सद्दाम की मूर्ति गिराने में लोगों को उतनी मशक्कत नहीं करनी पड़ रही थी जितनी कि इस मूर्ति को ससम्मान हटाने में हो रही थी.... यानी अंतर ढहाने और हटाने का भी था। साथ ही भावनाओं का अंतर तो रहा ही होगा.... क्योंकि टिकरित में जश्न के बीच लोगों की भावनाएं बयां हो रही थीं...और यहां लखनऊ में एक आदेश का पालन। आखिर प्रदेश की मु्ख्यमंत्री मायावती अपनी मौजूदा मूर्ति, जो उन्होंने कुछ समय पहले ही लगवाई थी, से संतुष्ट जो नहीं थीं। आपका सवाल जरूर ये होगा कि आखिर असंतुष्टि की वजह क्या रही? दरअसल कुछ समय पहले लगवाई खुद की मूर्ति, प्रदेश की मुख्यमंत्री को पास ही लगी एक मूर्ति से हल्की और कम ऊंचाई वाली लग रही थी। पास ही लगी मूर्ति का नाम अगर खुद मायावती के शब्दों में बयान करने को कहा जाए तो.... मान्यवर कांशीराम जी की थी।
मायावती को जैसे मूर्तियों का कद छोटा और बड़ा आंकने की नई आदत लगी है। कुछ दिनों पहले ही उनके आदेश से एक और मूर्ति हटाकर नई लगाई गई, जो पास वाली मूर्ति से कम कद की थी। हटाई गई मूर्ति थी डॉ.अम्बेडकर की और पास वाली मूर्ति थी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की। उस वक्त एक विचारक की कही बात कल फिर ज़ेहन में घूमी कि अगर ऊंची मूर्तियां लगाने से किसी का कद बढ़ता है तो क्यों ना पहाड़ पर अपनी मूर्ति लगाई जाए।
खैर.... चाहे जो हो, जीते जी अपनी मूर्तियां लगाने वाली वे देश की पहली नेता तो बन ही गई हैं। शायद ऊंचाई वाली मूर्तियां लगाकर भी कोई नया रिकॉर्ड बनाने की तहरीर शुरू होती हो....