Thursday, December 25, 2008

क्या होगा?


नए साल में नया क्या होगा...
वोही रात वोही दिन..
वही तुम और वही मैं।

झुटपुटे से निकलता चांद,
साथ के छिट-पुट तारे,
पर कौन हमारे...

छिटकी सी धूप,
अलसा के खोया रूप,
कैसा प्रतिरूप...

रात की आसमानी आंच,
इर्द गिर्द लहराता सा बोझ,
किसकी सोच....

दीमक सा दिखता घुन,
रोने लगी है धुन,
कहां रुनझुन....

बरगद की बटेर,
कुहरे की देर,
कौन सवेर...

तारीखों के ढेर,
दिनों के फेर...
कैलेंडरों की सेल...

नए साल में कुछ भी ना होगा नया
सिवाय नए अंकों के...
और मशरूम के जालों के भीतर से,
बाहर आती एक दुर्गंध की तरह,
निकल आएंगी कुछ गंधियाती गालियां...
जो देनी होंगी हमें अपने आप को,
अपने तंत्र को,
सरकार को,
नेताओं को...
और भी ना जाने किसे किसे...
इसमें नया क्या होगा?

Thursday, December 4, 2008

आपको तो आती होगी आवाज...

इस नाशुक्रे से दौर में आखिर वे क्यों नहीं समझते कि क्या परोस रहे हैं... क्यों और आखिर कब तक... क्या जब तक हमारी आवाज हम तक पहुंचना बंद हो जाए????

मुझे अब कोई आवाज नहीं आती।

भले ही,
बमों के होते हैं धमाके,
कई राउंड चलती है गोलियां,
ग्रेनेड्स भी कभी कभार आ गिरते हैं,
लेकिन मुझे....
कोई आवाज नहीं आती।

औरतें रोती हैं,
आदमी क्रोध में कांपते हैं,
बच्चे भी पूरा मुंह खोलकर-
आंसू गिराते हैं...
लेकिन मुझे...
कोई आवाज नहीं आती।

कहीं दिखते हैं,
चेतावनी के शब्द।
घूमते कमांडो-पुलिस के जवान,
गुजरती हैं,
दनदनाती लालबत्तियां भी,
लेकिन मुझे....
कोई आवाज नहीं आती।

धुंआ दिखता है,
भीड़ दिखती है,
आक्रोश दिखता है,
कोई मोमबत्तियां ले जाते,
तो कोई,
शहीदों को चढ़ाने बड़े बड़े फूल,
कुछ हाथ उठाकर,
कुछ कहने का अभिनय करते से,
और कुछ
नेता से दिखते दरिंदे सिर झुकाकर मौन,
कुछ आस्तीनों में रेंगती सी परछाइयां,
कुछ भैंस के आगे बजती सी बीन,
लेकिन मुझे...
कोई आवाज नहीं आती।


उफ्फ...कोफ्त है या...
कानों में क्यों अहसास नहीं,
आखिर क्यों...
क्यों,वक्त की आवाज आज साथ नहीं।
कहीं ये बहरापन?????

नहीं.. मुझे अब भी आती है आवाज,
हाथ के रिमोट पर अंगुलियों के जाते ही,

ये है वो आतंकवादी...,
ये उसका परिवार..,
ये उसकी मां..,
ये उसकी बहिन..,
ये पिता..,
ये बेचारा, परिवार बेचारा,
मुल्क बेचारा,जनता बेचारी,
नेता बेचारा,
बम बेचारे, आका बेचारे
और उफ्फ्फ.... कितने बेचारे हैं ये कान।

तरूश्री शर्मा

Tuesday, November 25, 2008

यही है ना वो भूख?


दिल्ली की ठंडी शाम थी और महज चार घंटे बाद ट्रेन। मैं, मेरी बहिन और उसकी फ्रेंड सहित हम चार लोग थे और करोल बाग के बाजार में शॉपिंग के बाद एक और दोस्त को साथ लेकर किसी रेस्टोरेंट में खाना खाना था। इसके बाद राजेन्द्र प्लेस की एक होटल से अपना सामान उठाकर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचने तक की पूरी कवायद दिमाग में चल रही थी। शॉपिंग पूरी होते होते लगभग दो घंटे बीत गए थे और निकलने के समय कपड़ों की ऑल्टरेशन में लगभग 20 मिनट लगने की बात स्टोर कीपर ने कह दी थी। सोचा, तब तक अपने साथ के एक मित्र को बाहर से कुछ औऱ शॉपिंग करनी बाकी रह गई थी सो वही करा दी जाए। आखिर टाइम मैनेजमेंट पर पूरा ध्यान केंद्रित था। बाहर आ कर खरीददारी करने में बमुश्किल सात आठ मिनट लगे कि तभी गोल गप्पे वाला दिख गया। बस... फिर क्या था, गोल गप्पे वाला दिखे और मैं गोल गप्पे ना खाऊं, ये तो हो ही नहीं सकता ना। सारा सामान उठाकर गोलगप्पे वाले के पास पहुंच गए। इस खाने पीने से निवृत्त होते तब तक पन्द्रह मिनट बीत चुके थे। सो सारा सामान अपने साथ के लोगों के हवाले छोड़कर मैं कपड़े लेने स्टोर पहुंच गई। कपड़े तैयार थे, फटाफट लिए और तब तक सभी लोग बाहर आकर मेरा ही इंतजार कर रहे थे। खाना खाने के लिए साथ आने वाला मित्र भी पहुंच चुका था और हमें निर्धारित स्थान पर पहुंचने के लिए ऑटो रिक्शा ही सबसे उचित साधन लगा। तो बस ऑटो में सवार होकर सभी निर्धारित स्थान पहुंचे कि तभी ध्यान आय़ा...
उफ्फ....मेरा पर्स कहां है?
तभी ध्यान आया कि शायद गोलगप्पे वाले के पीछे खड़ी कार पर ही छूट गया हो। अब क्या किया जाए...
ट्रेन छूटने में महज डेढ़ घंटा बाकी था। बहिन और उसकी फ्रेंड ने कहा हम लोग ढूंढ लाते हैं तब तक आप लोग जाकर खाना ऑर्डर करो... जब तक ऑर्डर पूरा होगा....हम लौट आएंगे।
आईडिया बढ़िया था सो हम लोग दो भागों में बंट गए। खाने का ऑर्डर तो किया लेकिन मन खाने में कम पर्स में ही ज्यादा था। तभी फोन आ गया कि पर्स गोलगप्पे वाले के यहीं मिल गया है और बाकी की सारी कहानी वहां आकर बताते हैं। थोड़ी सांस आई। खाना आने तक वे लोग लौट आए थे। खाना खाते खाते बात हुई...
गोलगप्पे वाले ने पर्स में बम समझकर उसे दूर कम भीड़ भाड़ वाले स्थान पर रख दिया था। पुलिस को इत्तिला इसलिए नहीं दी कि कल से उसका ठेला वहां लगने नहीं देंगे। इन लोगों के जाते ही वो जैसे उबल पड़ा।
ध्यान क्यों नही रखते हैं आप लोग... मेरी रोजी पर संकट आ जाता आप लोगों की वजह से। और भी बहुत कुछ....
शायद इसीलिए कहते हों कि डर के आगे जीत है।
क्या करते, सब कुछ सुनते रहे चुपचाप। आखिर पर्स मिल गया था.... चुपचाप सारी बातें सुनकर और उसे धन्यवाद कहते हुए ये लोग लौट आए। काम निपटा कर सही वक्त पर स्टेशन पहुंचे और ट्रेन भी पकड़ ली। तब कुछ सोचने का वक्त मिल पाया....
इतने भीड़ वाले इलाके से पर्स मिलना नामुमकिन सा लग रहा था... लेकिन मिल गया। खुशी बेहद हुई पर सवालों ने दुखी कर दिया....
अगर वह वास्तव में मेरा पर्स नहीं किसी आतंककारी का रखा बम होता तो कितनी जानें लेता?
मेरे देश का आम आदमी किस दहशत में जिंदगी बसर कर रहा है?
संवेदना भूख पर हमेशा भारी पड़ती है। आम आदमी बेचारा अपनी दो समय की रोटी कमाने के बीच इतना कहां सोच पाता? पर्स देखते ही उसे अपनी बीवी बच्चों की शक्ल याद आई होगी। बम हो सकता है और नहीं भी हो सकता, ऊहापोह में कुछ देर रहा होगा। देश के कानूनी फेर याद आए होंगे और ऐसे में विस्फोट में मरने वालों से ज्यादा खुद ही की चिंता होना लाजिमी था।
कुछ ऐसी ही भूख होती होगी वो जो एक आम आदमी को संवेदनहीन आतंककारी में तब्दील करती होगी....क्या कहते हैं आप?

Friday, September 26, 2008

मां की तनख्वाह!!!!!!!


वो अनाथालय मुझे हमेशा पूजा घर जैसा लगा। हालांकि मैं जब भी स्नेह छाया जाती मेरी आत्मिक संतुष्टि का स्वार्थ मेरे साथ जुड़ा होता। लेकिन बाहर आकर मैं खुद को बहुत बड़ी लगने लगती जैसे मैंने कईयों पर अहसान कर दिया कुछ किताबें, खाने की वस्तुएं और कपड़े देकर। फिर इन निम्न कोटि के ख्यालों का ध्यान आते ही मुझे खुद की इस सोच पर अपने आप को धिक्कारने का मन करता, और मैं बड़े लिहाज के साथ खुद को धिक्कारती। इंसान खुद को कहां दूसरों की तरह धिक्कार पाता है।
हर बार की तरह इस बार भी रोहित मुझे देखकर तेज चहका.... दीदी की हांक लगाता हुआ दौड़ा चला आया और मुझसे चिपट गया। उसका मुझसे यूं लिपटना जैसे मेरे अंदर ममता के स्रोते जगा देता और मुझमें जैसे एक अजीब से भाव का संचार होने लगता जो दूसरे सभी भावों पर हावी होता। मैं सारी दुनिया से कटकर सिर्फ एक मां रह जाती, खासकर रोहित की मां। उस छह साल के बच्चे की मां, जो किसी बाढ़ में अपना परिवार खोकर अब किसी अपने की तलाश की कोई इच्छा बाकी नहीं रखता। शायद मेरा इंतजार भी वो कभी नहीं करता, लेकिन मुझे देखकर खुश जरूर होता था।
कई बार उसके बारे में सोचती तो लगता कि जैसे उससे मेरा कोई पुराना नाता है। जिस दिन अनाथालय जाती शायद उसी दिन रोहित मेरे और मैं रोहित के साथ खुश रहती, इसके अलावा हमारा कोई संबंध नहीं रहता। मेरे आने के बाद मुझे उसकी ऐसी कोई याद नहीं आती,जिसका उल्लेख किया जाए। ना ही उसकी बातों से कभी लगा कि वो मुझे याद करता है। आश्चर्य होता कि ये कैसा रिश्ता है जब मिलते हैं तो एक दूसरे को छोड़ने का मन ही नहीं करता और जब छोड़ देते हैं तो मिलने का मन नहीं करता।
- दीदी, इस बार कुछ मोटी लग रही हो तुम।
- सच.... ओहो रोहित अब फिर कम खाना पड़ेगा।
- क्यों दीदी... क्यों खाने में कटौती करती हो, सब कहते हैं भगवान सबको चोंच देता है तो दाना भी देता है फिर मोटा होना तो अच्छा है ना।
- अरे...फिर तू ही अगली बार कहेगा कि दीदी मोटी हो गई हो अच्छी नहीं लग रही।
- नहीं दीदी... मुझे तुम हमेशा अच्छी लगती हो।

रोहित मुझसे चिपट गया। मैंने उसके बालों में हाथ फेरा....

- रोहित, शैम्पू खत्म हो गया क्या। बाल चिपके चिपके लग रहे हैं...
- हां दीदी, काफी दिन हो गए।
- अरे तो मुझे बताया क्यों नहीं? फोन नंबर दिया था ना मैंने अपना, कभी फोन क्यों नहीं करते?
- आप भी तो मुझे नहीं करतीं। फिर मैं ही क्यों करूं क्योंकि मेरा शैम्पू खत्म हो गया, आपको मुझ से कोई काम नहीं पड़ता तो मुझे फोन नहीं करतीं...
- ऐसा नहीं है रोहित समय नहीं मिल पाता ना!!!
- क्यों,आप क्या करती हो पूरे दिन...आपको तो स्कूल भी नहीं जाना होता।
- अरे,पर ऑफिस तो जाना होता है ना!
- क्यों जाती हो दीदी ऑफिस?
- ह..म..म..म.... कमाने जाती हूं रोहित बेटा।
- ओह...आपके तो मम्मी पापा है ना..फिर आप क्यों कमाती हो?
- अब मैं बड़ी हो गई हूं ना...इसलिए!!!
- ओह, तो दीदी मैं भी जब बड़ा हो जाउंगा, कमाने के लिए ऑफिस जाउंगा।
- ठीक है,जरूर जाना। अभी बताओ..

- दीदी, एक दिन सड़क से बिल्कुल तुम्हारे जैसी लड़की जा रही थी। दीपक ने सबको बताया कि शायद आज दीदी आएगी सबके लिए बिस्किट लेकर... लेकिन तुम तो नहीं आईं। उस रोज मैंने दिन का नाश्ता भी ठीक से नहीं किया। फिर पेट भर जाता तो तुम कहतीं कि मैं जो लाती हूं तुम खाते नहीं हो....
- ओह....तुम एक फोन कर लेते रोहित...भूखे रहना पड़ा ना एक दिन
- कोई बात नहीं दीदी, शाम को पेट भर के खा तो लिया था फिर।
- मैं तुम्हें ढेर सारे बिस्किट दे जाती हूं इस बार...तुम उन्हें छिपा के रख लो, जब मन करे खा लेना।
-लेकिन दीदी, फिर दीपक,मनु,रेखा,अदिति और अली का क्या होगा...वो कैसे खा पाएंगे, तुम सभी के लिए ढेर सारे दिला जाओ।
उफ्फ... मन के अंदर कुछ चटका।
आंखों से लिजलिजा सा कुछ बहने लगा... मैं वहां होकर, वहां से बहुत दूर चली गई।
पहली बार मन इतने कड़वे तरीके से रोया, हे ईश्वर!!! मेरी तनख्वाह इतनी कम क्यों है?
खैर, इन दिनों मैं नई नौकरी ढूंढने में लगी हूं।

तरूश्री शर्मा

Saturday, August 23, 2008

सवालों के ढेर से....धुंए के छल्ले


रातें हर रोज खाली खाली सी रहने लगी थीं....
जैसे तारे आसमान से अब चिपकते ही ना हों और चांद की डोरी आकाश से लटकती ही नहीं थी। रात का सन्नाटा जैसे होता ही नहीं था और अंधेरे की कालिख पसरती ही नहीं थी।
दिन जैसे दिन की तरह नहीं होते थे....
सूरज का रथ जैसे दौड़ता ही नहीं था और और धूप के गोले जैसे उतरते ही नहीं थे। दिन का शोर जैसे चिल्लाता ही नहीं था और रोशनी की पीली खिड़कियां खुलती ही नहीं थी....
वो इस अजीब से समय में गुत्थम गुत्था सवालों के जाल में खोया रहता था....गोया,
ये दीवार क्यों नहीं चलती और चलती होती तो कहां तक पहुंच चुकी होती? क्या ये मुझसे तेज चल पाती और क्या मेरी तरह तेज दौड़ पाती? मेरी अनुपस्थिति में मेरे स्केट्स पहन कर घर में कोहराम मचा देती या कोने में बैठकर सिगरेट के कश खींचने का मजा लेती? कभी मन करने पर दुष्यंत के शेर पढ़ती या मैक्सिम गोर्की के उपन्यास से जीवन का दर्शन खोजती.... औऱ आखिर में यह सवाल कि....आह, मैं यह सब क्यों सोच रहा हूं।
खैर.... ना दिन बदलते थे ना शामें और ना ही रात.....
काम पर जाता था पर किसी से बात करने में जैसे उसकी नानी मरती.... आस पास काम करती लड़कियों को देखकर ऊब होने लगती.... और सवालों का क्रम शुरू हो जाता...
क्यों रोज सज धज के आती हैं, कितना समय लगाती हैं? और आखिर क्यों ? क्या मुटल्ले पांडे को रिझाने के लिए? या पान की पीक से फुर्सत ना पाने वाले बनवारी से इश्क लड़ाने के लिए ? अगर दोनों से नहीं तो इस दफ्तर में तीसरा कौन? मैं? मुझे पटाने के लिए ? और अगर हां... तो मैं इन्हें देखकर खुश क्यों नहीं होता? क्यों ये देविका की तरह.... और ओह... देविका का नाम आते ही जैसे उसके सारे सवाल खत्म हो जाते।
ये एक टूटी दास्तान थी... जिसके एक छोर पर आते ही उसके दिन रात, असली दिन रात जैसे हो जाते... अभी जैसे नहीं रहते.... सारे सवालों को पंख लग जाते और वे उड़कर उसकी पहुंच से कहीं दूर हो जाते। उस दिन वो हिलोरें लेता घर आता... कोने में बैठकर पेट की गहराई जितने गहरे सिगरेट के कश खींचता, अपनी पसंदीदा गजल में खो जाता....
कच्ची दीवार हूं... ठोकर ना लगाना मुझको...
उसकी रूह, सिर्फ संगीत को महसूस कर पाती, उसके दिमाग के लिए तो गजल के शब्द और संगीत जैसे पहुंच से बहुत परे की चीज हो जाते.....
ऐसे ही कभी अवतार सिंह पाश की कविता के फड़फड़ाते पन्ने पर दिखती चंद लाइनें...
सबसे खतरनाक होता है,
मुर्दा शांति से भर जाना...
ना होना तड़प का,
सब कुछ सहन कर जाना,
घर से जाना काम पर
और काम से लौटकर घर आना...
सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना।
ओह....... माक्सॆ का अलगाववाद.... हुंह... जैसे उसके मुंह का स्वाद कसैला हो जाता। दिन, एक बार फिर दिन नहीं रहते.... रातें, रातों की तरह नहीं रहतीं। और सवालों के ढेर एक बार फिर उसके मुंह पर धुंए के छल्ले उड़ाने लगते....

Tuesday, August 19, 2008

लटके हैं अरमां उल्टे


जुड़ने को था जो,
अभी बिखर गया,
बिना कहे...
सफर बदल गया।
ख्वाब था एक,
जुड़ा सा दिखता था,
पास आते ही,
मकड़जाल पर जमी,
बारिश की बूंदों सा..
कतरा कतरा ढुलक गया।

ताउम्र सोचने की
ख्वाहिश थी,
उससे मिलने की
एक गुजारिश थी,
वक्त से वफाई ना हुई,
घरौंदों सा बिगड़ गया।
मेहमां निकल गए,
बुलबुले की तरह,
अरमान ढह गए
सिलसिले की तरह,
रात का पंछी उड़ा,
चमगादड़ की तरह।
लटके हैं अरमां उल्टे
तिलिस्म की तरह।
सिर से गुजरते साये,
बादलों की तरह...
गोया कुछ पल बरसेंगे,
शायद ना भी बरसें।

बिखरे टुकड़े समेटने की
हिम्मत रख,
टूटे ख्वाबों में नया सुख
खोजने की हिम्मत रख।

Friday, July 18, 2008

शायद, लड़की गलत थी...


ये मंजर पहली बार सामने आया हो... ऐसा नहीं था। कई बार लड़की ने सवाल पूछा था और हर बार लड़के ने उसे बहला कर बात को फिर नदी की तरह बहा दिया था। दोनों पानी की तरह एक दूसरे पर प्रेम बहाते थे, और इस बहाव का माध्यम था, मोबाइल फोन। ना लड़का कभी लड़की से मिला था और ना ही उसे लड़की ने कभी देखा था। प्रेम की नदी ने इंटरनेट के चैट रूम से एसएमएस और फिर मोबाइल से अपना सफर तय किया था। बातें हुई, एक दूसरे के कई सच बेपर्दा हुए और दोनों से कुछ छिपा ना रह सका।
लड़का वास्तव में नदी सा था, उसमें हमेशा बहाव था, कल कल थी। पानी की तरह बह रहे प्रेम की कल कल आवाज हमेशा उसी के मुंह से सुनी जाती थी। लड़की में ठहराव था, बोलती बहुत थी, लेकिन जमीनी सच्चाई से दूर... हवा में बहते प्रेम के इस रूप को वो आवाज नहीं दे पाती थी। या शायद, वह इस प्यार पर विश्वास नहीं कर पा रही थी और इस अनाकार के भविष्य में होने वाले आकार की कल्पना करने की कोशिश करती थी।
जब कभी झगड़ा होता, बहाव कुछ गाढ़ा होकर एसएमएस में तब्दील हो जाता और जब सब कुछ ठीक चलता... बातें बल खाती हुई, हवा की तरह बेधड़क अपना सफर तय करती। लड़की, इस बहाव पर लड़के द्वारा की गई जिंदगी की बातों की नाव तैराती थी और इसी पर अपने सपनों का वो महल बनाती थी जिसकी नींव खुद लड़के ने रखी थी। लड़की में उद्वेलन था, वो इन नावों को किनारे लगा कर जमीन पर महल खड़ा करना चाहती थी और इसके लिए उसे लड़के के मजबूत इरादों की छांव चाहिए थी। लड़की मजबूत इरादों वाली थी। चाहती थी, लड़के के हर कमजोर इरादे में अपने प्यार की जान डाल दे। अपनी परवाह की उसमें खाद डालती थी। लेकिन नतीजा...ज्यों का त्यों।
- शोर बहुत है...पार्क में आकर बात करो।
- ठीक है...थोड़ी देर में पहुंचता हूं।
दो घंटे बीत गये थे। लड़की उसके फोन का इंतजार कर रही थी। सोते, जागते, काम करते, ऑफिस में खबरों से लड़ते... अवचेतन अवस्था में हर समय वो यही तो करती थी।
जरूर कहीं काम में बिजी हो गया होगा। लड़की ने सोचा था।
तभी फोन बजा। अजब संयोग था.... हमेशा बहुत देर के बाद जब उसके फोन नहीं आने की बात दिमाग पर हावी होने लगती कि उधर से फोन आ जाता था।
- लो मैं पार्क में आ गया, तुम्हारे कहने के मुताबिक।
- ओह... जैसे हमेशा जो मैं कहती हूं, वैसा ही करते हो।
- कब नहीं किया बताओ?
- अब रहने दो... कुछ और बात करो।
- क्या बात करनी है बोलो....
- तुमने हमारे रिश्ते के भविष्य के बारे में क्या सोचा है?
- .......
- बोलो.... हमेशा मेरे इस सवाल पर तुम्हारा चुप हो जाना, अब मुझे चुभने लगा है।
- नहीं, मैं चुप नहीं हूं....
- तो बोलो...
- क्या बोलूं... समझ नहीं आ रहा है?
- तुम जानते हो इस मुद्दे पर कई बार हम दोनों के बीच तकरार हो चुकी है। अब तो बताओ कि आगे क्या करना है? मैं क्या करूं? तुम जानते हो मैं पहले भी तुमसे बिना पूछे, बिना बताए अपना रोका तोड़ चुकी हूं। और बाद में तुमने कहा था कि मेरे कहने से किया है क्या?
- .......
लड़का मौन था, वो भी सोचने लगी थी। तब भी तो उसने इस रिश्ते को एक सही दिशा देने की कोशिश की थी। तब लड़के ने कहा था, बहन की शादी नहीं होने तक कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता। लड़की ने कहा था मैं तो खुद इस बात से सहमत हूं.... पहले बहन की शादी होगी...तभी हम शादी करेंगे। लेकिन इस बारे में कोई ठोस बात तो कहो.....
लड़का तब भी कोई ठोस बात कहने से बच गया था, और लड़की अपनी भावनाओं के आगे बेबस होकर...उसकी गोल मोल बातों में भविष्य की सम्भावनाएं खोज कर चुप हो गई थी। सब कुछ फिर से पटरी पर आ गया था.... नदी बह चली थी, बेधड़क संवाद की, एक बार फिर। अचानक आज फिर असुरक्षा की भावना के बीच लड़की के दिमाग में यह सवाल कौंध गया था।
- मैं पूछ रही हूं तुमसे कुछ.... जवाब दो।
- ह..म..म... सुन रहा हूं।
- मुझे जवाब की जरूरत है, तुम्हारे सुनने की नहीं।
- क्या पूछना चाहती हो...
- उफ्फ्फ... कहा ना कि हमारी शादी के लिए क्या प्लानिंग है?
- हां.... बहिन की शादी होगी...
- तो क्या मैं तुम्हारी बहन से शादी करूंगी?
- नहीं.... मैंने यह नहीं कहा...
- यह कन्फ्यूजन इसलिए हुआ है क्योंकि मेरे सवाल का जवाब वह नहीं, जो तुम दे रहे हो.... मैं साफ साफ जवाब चाहती हूं...
- क्या कहूं...
- वही कहो जो तुम सोचते हो....
- सच कहूं तो यही समझ नहीं आता है।
- आश्चर्य कि जिस बात पर हमने इतनी बार बहस की...उस बारे में तुमने सोचा तक नहीं?
- क्या कहूं....
- बताओ...मैं क्या करूं?
- तुम अपने पेरेन्ट्स की बात मान लो।
- ठीक है....
- लेकिन अपना फोन बंद मत करना...मुझसे बात करती रहो।
- मैं कई बार कह चुकी हूं...मुझसे यह नहीं होगा। इस तरह से रिश्ते की लाश ढोना मेरे बस की बात नहीं.... मैं इसका दाह संस्कार करके इसके गम के साथ जीना पसंद करूंगी।
- प्लीज...सुनो मेरी बात मान लो।
- नहीं....हां इतना कर सकती हूं कि जब कभी मैं इस दर्द से बाहर निकलूंगी, तुमसे एक बार जरूर बात करूंगी।
- प्लीज...ऐसा ना कहो, मुझसे बात करती रहो।
- नहीं... सॉरी, चलो बाय।
लड़की अब आगे बोल नहीं पा रही थी। उसने फोन रखकर अपनी मौजूदगी में रोना मुनासिब समझा। खूब रोई आज वह..... हालांकि ऐसा तो पहले भी हो चुका था और हर बार लड़के ने उसे मना कर वापस नदी में बहा लिया था। लेकिन इस बार उसने जोर डालकर वह बात लड़के के मुंह से कहलवा ली थी जिसे वह कहना नहीं चाहता था। वैसे इस सच का अंदेशा उसे था, लेकिन आज उस अंदेशे ने सच का आकार ले लिया था।

एक पूरे दिन कोई संवाद नहीं हुआ। शाम होते ही मोबाइल पर मैसेज ब्लिंक कर रहा था।
- मैं नहीं रह पा रहा हूं तुम्हारे बिना। प्लीज मुझे तुम्हारी आदत हो गई है। हम लड़ लेंगे लेकिन बात करती रहो...
लड़की को लड़ाई से दुख नहीं था...लेकिन आज भी लड़के की बात में वादे और इरादे की मजबूती दूर दूर तक नहीं थी। लड़की ने रिप्लाइ मैसेज टाइप कर दिया-
- पेपर कैसा हुआ?
- ठीक हुआ। क्या मैं तुमसे रिलायंस वाले फोन पर बात कर सकता हूं?
- सॉरी नहीं... वैल अच्छा है कि पेपर अच्छा हुआ।
रात ढल चुकी थी। खाना खाकर सोने की तैयारी में थी लड़की। नींद को खोज रही थी....सारी खूंटियां टटोल आई थी.... नींद थी कि जाने कहां टंगी थी, मिलती ही नहीं। धड़ाधड़ सवेरा हो गया.... आंखों में कैसे कटती है रात, इसका लड़की को खूब अनुभव हो गया था। सवेरे मोबाइल को एक बार देख चुकी थी कि शायद कोई मैसेज आया हो....
और लो मैसेज हाजिर।
- मैं नहीं रह पाउंगा तुम्हारे बिना। हम अलग नहीं हो पाएंगे... इतना लड़ते हैं फिर साथ आ जाते हैं। इसको हमारी नियती मान लो....
- लेकिन कल तो तुमने कहा कि पेरेन्ट्स की बात मान लो...
- हां कहा था... जब तक तुम्हें कोई विकल्प नहीं मिल जाता, मुझसे बात करती रहो। और जब कोई मिल जाए तो चली जाना।
लड़की पर पहाड़ टूट पड़ा था। लड़का आखिर चाहता क्या है? और क्यों? जब अलग ही होना है तो कुछ दिन के लिए जुड़े रहने का स्वांग या मजबूरी क्यों? बुरा लगा था उसे... जिस चीज को आकार देना चाहती थी वो उसकी लाश पर अपनी रोटियां सेकना चाहता था लड़का।
- अगर यही ढुलमुल रवैया है तो सुन लो। मुझे विकल्प मिल गया है, नवंबर में शादी की बात चल रही है। गजब के कमजोर इंसान हो तुम....
लड़की ने झूठ बोला था.... लेकिन यह उसका आखिरी दांव था। शायद अब भी वो बोल दे.... कि नहीं... तुम कोई शादी नहीं करोगी.... मैं खुद बात करूंगा तुम्हारे परिवार से और बहन की शादी के बाद हम भी शादी कर लेंगे। ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक बार फिर संवाद बंद...
लड़की को इसकी आदत हो गई थी। उसे अपने घर में बिखरी, फैली बेवजह जगह घेरती चीजों से चिढ़ होती थी। जिंदगी में भी वो हमेशा ऐसे बेवजह के ख्यालों और रिश्तों को खुद से दूर रखती थी। हमेशा खुद से लड़कर हिम्मत जुटा लेती थी। शाम घिर आई थी.... वो ऑफिस से निकलकर घर आ गई थी। फोन पर फिर मैसेज ब्लिंक हुआ-
- ठीक है। आज के बाद मैं तुमसे कोई वास्ता नहीं रखूंगा। ना ही कोई मैसेज करूंगा, ना ही कॉल औऱ ना ही मेल। बस तुम जहां भी रहो खुश रहो।
-ओ.के.। मैं जब भी खुद को इस काबिल समझूंगी कि तुमसे बात कर सकूं, उस दिन फोन जरूर करूंगी। लेकिन इंतजार मत करना। बाय..
- ठीक है। लेकिन एक बात कहना चाहूंगी.... अब िकसी से वो बातें और वादे मत करना, जिन्हें तुम पूरा ना कर सके।
- ठीक है...जैसा आपका आदेश। लेकिन इतना कहूंगा कि मेरी मजबूरी अगर तुम समझ पातीं तो शायद ऐसा ना कहतीं। खैर जहां रहो...खुश रहो, तुम्हारी सारी चाहतें पूरी हों।
खोखली बातें..... हुंह। लड़की को याद आईं वे सभी मजबूरियां जो लड़के ने वक्त वक्त पर गिनाईं थीं.... कुंडली नहीं मिलती, बहिन की शादी नहीं हुई है, मैं तुम्हे खुश रख पाउंगा या नहीं। एक एक मजबूरी का लड़की ने हल खोज कर बता दिया था, लेकिन आज फिर उस मजबूरी की दुहाई.... उफ्फ्फ... गहरी सांस ली थी उसने। अंगुलियां फिर मोबाइल के की पैड से खेलने लगी थी....
- एक औरत का प्यार भी अगर आदमी की मजबूरी को कम ना कर सके तो जाहिर सी बात है कि नीयत में खोट है। आज मुझे जवाब देना भले ही तुम्हारी मजबूरी ना हो, लेकिन एक दिन तुम्हारा मन खुद तुमसे चीख चीख कर जवाब मांगेगा। और वो वक्त तुम्हें इससे भी भारी लगेगा... जितना आज मुझे या तुम्हे लग रहा है। ये मेरी चाहत है और और जरूर पूरी होगी क्योंकि इसकी दुआ तुमने की है। और हां... अपनी ये दुआएं मुझ पर लुटाना बंद करो, इन्हें संभाल कर रखो। मेरे सामने मंजिलें कई हैं और उन्हें पाने के लिए मुझे तुम्हारी दुआओं की बैसाखियों की जरूरत नहीं, मेरे पास दोस्तों के मजबूत कंधों का सहारा है।
एसएमएस कुछ लम्बा हो गया था, सात मैसेज के बराबर... लेकिन लग रहा था कितना लिखना अभी बाकी है। लेकिन अब बस.... बहुत हुआ। लड़की जानती थी एसएमएस का जवाब एसएमएस से होगा, कॉल करने की हिम्मत तो लड़के में है नहीं। खैर जवाब आया-
- क्यों कोस रही हो.... मैंने तो तुम्हे दुआएं दी हैं।
सही तो कह रहा है....लड़की ने उसके बाद लड़के के किसी मैसेज और कॉल का जवाब नहीं दिया।
रिश्ते की शुरूआत में लड़के ने लड़की के सामने अपने पिछले प्यार में नाकाम रहने की दास्तान सुनाई थी। लड़की ने कहा था....अगर तुमने यह किया होता और यह नहीं, तो सब कुछ ठीक हो जाता। लड़की ने भी अपने पिछले प्यार की दास्तां सुनाते हुए एक और धोखा झेल नहीं पाने की बात कही थी। लड़के ने हर बार धोखा नहीं होने और विश्वास रखने को कहा था।
इस बार फिर लड़का नाकाम हुआ था.... और लड़की को....??????
शायद लड़की कहीं ना कहीं गलत थी। कहां -कहां, यह आप बता दें... दूसरों की तरह मैं भी मानती हूं कि हर किस्से में लड़की गलत होती है... आखिर आप और मैं समाज का ही हिस्सा हैं ना?

Saturday, July 5, 2008

ये मेरा...हां मेरा नाम है।


वो गुलाब के फूल थे,
तेरी डायरी में लिखे,
मेरे नाम से दिखते हर्फ़े,
जो तेरी कसमसाहट बयां करते थे।
हर शब्द पर कई कई बार फिरी कलम,
और उसे गहरा बनाने की चाह में,
एक दूसरे में गुंथे,लिपटे से अक्षर।
इतनी कवायद से कागज पर-
पहचान खो चुका नाम,
तेरी भावनाओं की खुशबु से सरोबार,
एक फूल सा बन पड़ता था।
लेकिन मैं पहचानती थी,
ये मेरा...हां मेरा नाम है।
कहीं ना कहीं पड़ा होगा,
तेरी डायरी में अब भी,
वो फूल जो कभी सूखेगा नहीं,
गुलाब का सुर्ख फूल...
मेरी डायरी में रखे
मोगरे के ऐसे ही फूल की तरह।
आखिर तुझे मोगरे की,
और मुझे गुलाब की-
खुशबू जो पसंद थी।

Saturday, June 28, 2008

मां से जाकर कह दूंगी....

वो वहां की थी जहां साधन थे लेकिन स्वतंत्रता नहीं। व्याकुलता थी लेकिन राहत का कोई उपाय नहीं। उसके पास पंख थे लेकिन उड़ने के लिए आसमान नहीं। वो चुप नहीं बैठी.... और अपने आस पास के बंधन तोड़कर खुले आसमान की ओर हसरत से देखने लगी।



मां से जाकर कह दूंगी,
बापू को समझा दूंगी
बंद घर के रोशनदान से,
ये छोटा आकाश नहीं देखूंगी।

विस्तृत नभ के विस्तार का,
मेरी आंखें वरण करेंगी।
आशाएं फिर पसर पसर कर,
मेरे मन में जगह करेंगी।
फिर मैं क्यों देखूं टूटा चांद,
मैं क्यों देखूं मुट्ठी भर गगन,
मैं क्यों देखूं गिनती के तारे,
जबकि मेरे भी हो सकते हैं,
ये सब ही सारे के सारे।


अधिकार मिलते नहीं कभी,
सजी थाली के आकारों में।
वो तो सिर्फ छीने जाते हैं,
चाहे हो वो परिवारों में।
अपने हक पाने को अब मैं,
पूरा जोर लगा दूंगी।
बंद घर के रोशनदान से,
ये छोटा आकाश नहीं देखूंगी।


वक्त की रेत मेरी मुट्ठी से,
फिसल कर फैली अभी नहीं है।
सपनों की दुनिया भी मुझसे,
अनजानी अनबोली नहीं है।
मन की जकड़न तोड़ के,
मैं अब विद्रोह की वीणा छेड़ूंगी।
बंद घर के रोशनदान से,
ये छोटा आकाश नहीं देखूंगी।

Monday, June 23, 2008

दुनिया जाए तेल लेने... ऐश तू कर।


मजा आता है जब लम्बे समय से चल रहे घिसे पिटे से रूटीन में कुछ बदलाव आता है। खासकर ऑफिस में हुए इस तरह के बदलावों के दौरान तो खूब मजा आता है.... आपको भी और लोगों को भी। बदलाव चाहे पॉजिटीव हो या नेगेटिव... बयानों और कानाफूसियों का वो दौर चलता है कि कुछ दिन तो सबकी बल्ले बल्ले। मुफ्त में गॉसिप का टॉपिक तो मिला ही साथ ही सामने वाले के मजे लेने का मौका भी। कुछ कोसने का दौर तो कुछ घूरती आंखें। पिछले दिनों कुछ ऐसे ही माहौल का आनंद उठाने का मौका मिला। मुझे अपने ही ऑफिस में इन दिनों नई जिम्मेदारी सम्भालने का मौका दिया गया है। मैं तो खूब एंजॉय कर रही थी लेकिन लोगों के तरह तरह के कमेंट्स मुझे और ज्यादा उत्साहित कर रहे थे। अपने राम तो बस इस थ्योरी पर चल रहे ते कि सुनो सबकी लेकिन करो मन की.... और वो भी खुशी खुशी। ये आनंद आप भी लेकर देखें।

Wednesday, June 18, 2008

अंगुलियों का गणित



अंगुलियां-
सारा हिसाब जानती हैं।
गिनती हैं दिन,
बुनती हैं संख्याएं,
अंदाज तोलती हैं,
जोड़ती हैं मुट्ठियां,
सारे भेद घटाकर,
और दुगुनी कर देती है,
हिम्मत हमारी।
अंगुलियां-
सारा हिसाब जानती हैं।
खींचती हैं रेखाएं,
आढ़ी टेढ़ी मुसीबतों की तरह,
तो कहीं परेशानी के वृत्त,
और गम लेकर कैद करती है,
आयतों में।
कभी कभी किसी चौखाने वर्ग में,
खड़ा कर लेती है खुद को।
शायद ये अंगुलियों का गणित है,
जिंदगी के साये में।
जटिल लेकिन सरल सा...
अंगुलियों का गणित।

Saturday, June 7, 2008

मां मुझे लोहा बना दो!!!!!


बलात्कार की खबरें...भले ही अंदर तक हिला देती हों, लेकिन आज भी घरों में मां अपनी बेटी को सुबह सवेरे उठने से लेकर रात को सोने तक यही हिदायतें देती है कि बेटा तेरी खूबसूरती कैसे निखर सकती है या कैसे तू गोरी और सुंदर बनी रहेगी...और हां... ठीक से रहा कर... आखिर ब्याह कराना है, खूबसूरती बहुत जरूरी है। कौन सिखाएगा कि बेटी अपने अंदर आग पैदा कर, खुद की सुरक्षा खुद कर, मन की खूबसूरती को जगा। लेकिन एक बेटी ने खुद ही खोजा आज की असुरक्षा से लड़ने का उपाय...

मां मुझे सांचे में ढालो,
मां मुझे लोहा बना दो।
तुम मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।

दो मुझे विद्रोह कि मैं,
तेरे सारे दुख जला दूं।
जला दूं हर हेय दृष्टि,
सोख लूं तानों की वृष्टि।
तुम मुझमें वो आग डालो,
मुझको अंगारा बना दो।
मां मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।

तुम मुझे फौलाद कर दो,
सबका सहारा बन सकूं।
ना लूं अवलम्ब किसी का,
ना मैं लिपटी लता बनूं।
बनूं मैं वृक्ष विशाल कि,
सूरज से सीधे लड़ सकूं।
तुम मुझमें फौलाद डालो,
मुझको इस्पाती बना दो
मां मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।

तरूश्री शर्मा

Friday, June 6, 2008

फीनिक्स,फीनिक्स...कहां गए थे?


परसों पड़ोस के दो छोटे छोटे बच्चे... उम्र छह और सात साल की होगी, शाम को अपने लॉन में खेलते कूदते बातें कर रहे थे। अंधेरा था और कमरे में गर्मी होने की वजह से मैं भी बाहर निकल आई थी, दोनों बच्चो को दीवार के इस पार मेरी उपस्थिति का एहसास नहीं था। खुले दिल से वैचारिक अंदाज में बात कर रहे थे... तुझे पता है पैट्रोल औऱ डीजल महंगा हो गया है।
दूसरा बोला- क्या बात कर रहा है?
पहला - क्या यार तू भी? न्यूज नहीं देखता क्या?
दूसरा - नहीं, मैं तो पापा के साथ अभी पेट्रोल पम्प पर गाड़ी में डीजल डलवाने गया था। खूब भीड़ लगी थी।
पहला - ओहो... तो भी तुझे पता नहीं लगा? आज रात बारह बजे से दाम बढ़ जाएंगे ना... तबी तो सभी पेट्रोल डीजल डलवा रहे हैं।
दूसरा - ओह... तभी पापा कह रहे थे अब घूमना फिरना कम करना पड़ेगा।
पहला - कोई फर्क नहीं पड़ता... दो दिन बाद सब भूल जाएंगे। फिर से घूमना फिरना शुरू हो जाएगा। तू चिंता मत कर।
मुझे आश्चयॆ हुआ एक अपनी उम्र से बड़े और एक बचपन में जीने वाले बच्चे की ये बातें सुनकर। एक माहौल को देखकर नतीजा भांपने वाला बच्चा और दूसरा उसी माहौल को जीकर भी अपने बचपन में मस्त सा। किसे सही बताउं... कुछ देर के लिए परेशान हो गई मैं। रोज टीवी इंटरनेट पर ढेर सारी सामग्री पढ़कर तो जैसे उनके बात करने के टॉपिक ही बदल गए हैं। खैर..चाहे जो हो इन बच्चों को अगर बबलू बबलू कहां गए थे? की जगह पर टेक्नो कविताएं सुनाई जाएं... तो शायद उन्हें खूब मजा आए। कुछ इस तरह....

फीनिक्स.....फीनिक्स,
कहां गए थे?
मंगल की सैर पर क्यों गए थे?
नासा ने तुमको भेजा,
इसलिए गए थे?
इतने सारे टी वी शो थे,
सब पर खूब सारे सेलीब्रिटी थे,
तुम क्यों एलियन्स से मिलने गए थे?
चांद पर घर बनाने की बात है यहां,
तुम मंगल पर जीवन खोज रहे थे?
तस्वीरें भेजो और खोदो जमीन,
हम तो इंटरनेट पर
हर दिन तुमको देख रहे थे।

तरूश्री शर्मा

Monday, June 2, 2008

रातों रात ऊंचा किया कद...

रात के समय कम कद वाली मूर्ति हटाई जा रही थी और सुबह होने तक शानदार और भव्य ऊंचे कद वाली मूर्ति वहां मौजूद थी। तो कैसा लगा आपको ये रातों रात कद बढ़ाने वाला फॉर्मूला? वास्तव में दृश्य कुछ वैसा ही था जैसा सद्दाम हुसैन की मूर्तियां गिराने के वक्त रहा था। एन डी टी वी के कमाल खान के अनुसार, अंतर सिर्फ इतना था कि सद्दाम की वो स्थिति सब कुछ खोने के बाद हुई थी और मायावती की मूर्ति ढहाने के वक्त वो अपनी ज्यादा ताकत के साथ मौजूद थीं। मेरी नज़र में अंतर ये भी था कि सद्दाम की मूर्ति गिराने में लोगों को उतनी मशक्कत नहीं करनी पड़ रही थी जितनी कि इस मूर्ति को ससम्मान हटाने में हो रही थी.... यानी अंतर ढहाने और हटाने का भी था। साथ ही भावनाओं का अंतर तो रहा ही होगा.... क्योंकि टिकरित में जश्न के बीच लोगों की भावनाएं बयां हो रही थीं...और यहां लखनऊ में एक आदेश का पालन। आखिर प्रदेश की मु्ख्यमंत्री मायावती अपनी मौजूदा मूर्ति, जो उन्होंने कुछ समय पहले ही लगवाई थी, से संतुष्ट जो नहीं थीं। आपका सवाल जरूर ये होगा कि आखिर असंतुष्टि की वजह क्या रही? दरअसल कुछ समय पहले लगवाई खुद की मूर्ति, प्रदेश की मुख्यमंत्री को पास ही लगी एक मूर्ति से हल्की और कम ऊंचाई वाली लग रही थी। पास ही लगी मूर्ति का नाम अगर खुद मायावती के शब्दों में बयान करने को कहा जाए तो.... मान्यवर कांशीराम जी की थी।
मायावती को जैसे मूर्तियों का कद छोटा और बड़ा आंकने की नई आदत लगी है। कुछ दिनों पहले ही उनके आदेश से एक और मूर्ति हटाकर नई लगाई गई, जो पास वाली मूर्ति से कम कद की थी। हटाई गई मूर्ति थी डॉ.अम्बेडकर की और पास वाली मूर्ति थी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की। उस वक्त एक विचारक की कही बात कल फिर ज़ेहन में घूमी कि अगर ऊंची मूर्तियां लगाने से किसी का कद बढ़ता है तो क्यों ना पहाड़ पर अपनी मूर्ति लगाई जाए।
खैर.... चाहे जो हो, जीते जी अपनी मूर्तियां लगाने वाली वे देश की पहली नेता तो बन ही गई हैं। शायद ऊंचाई वाली मूर्तियां लगाकर भी कोई नया रिकॉर्ड बनाने की तहरीर शुरू होती हो....

Saturday, May 24, 2008

पुराना हो गया है ये राग....




दिल भी ये ज़िद पर अड़ा है किसी बच्चे की तरह,
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं।

राजस्थान में गुर्जरों ने आरक्षण की ज़िद पकड़ ली और अपनी मांगें मनवाने के लिए आम जनता की परेशानी से मुंह मोड़ लिया। कई दिनों पहले पटरियां उखाड़ने की ना सिर्फ धमकी दी, बल्कि डेढ़ किलोमीटर का ट्रेक उखाड़ भी लिया। वक्त था राज्य के बम धमाकों की मार झेलने के बाद दसवां दिन। कितना स्वार्थी हो सकता है एक समूह? क्या संवेदनाएं खुद तक आकर अपनी जिम्मेदारियां खत्म कर लेती हैं? जहां विस्फोट से लड़ने के जज्बे को देखकर देश का मीडिया प्रदेश वासियों की तारीफ करते नहीं अघा रहा था, वहां एक नया एपिसोड जिसमें २१ लोगों के मारे जाने की खबरें सामने आ रही हैं।
अब जब आरक्षण खत्म करने की बातें की जा रही हों,तो गुर्जरों का आरक्षण की मांग को लेकर यूं तांडव मचाना असामयिक सा लगता है। हालांकि आसान है कि और लोगों की तरह पांव पर पांव चढ़ाए हुए मैं भी सरकार को कोस लूं और कई लोगों के मारे जाने का मातम मनाते हुए, सारे कांड को सरकार की दमनकारी नीतियों का नाम दे दूं। लेकिन मैं ना तो विपक्ष की कोई बड़ी नेता हूं और ना गुर्जरों के आंदोलन का हिस्सा। कुछ लोग कह सकते हैं कि जांके पांव फटे ना पड़े बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई। या ये भी कह सकते हैं कि ए सी में बैठकर कम्प्यूटर पर हर्फे लिखने वाला, जमीन से जुड़े आदमी की तपन को ज़ुबान नहीं दे सकता। दरअसल मैं इस किसी भी टिप्पणी से बुरा मानने वाली व्यक्तित्व की स्वामिनी नहीं हूं क्योंकि इस देश में राष्ट्रपति से लेकर आम आदमी तक को कुछ भी सुनना पड़ सकता है। सच कहूं तो मुझे इन लोगों के मारे जाने का उतना ही दुख है जितना विस्फोट में मारे गए लोगों का.... क्योंकि दोनों का कोई दोष नहीं था। दोनों के कंधों पर बंदूक रखी गई थी, एक कांड में बाहर के आतंकवादियों ने तो दूसरे कांड में अपने ही घर के अंदर के अपने बनने वाले नेताओं ने। जनता फिर छली गई.... अपने हक को अपनी जिंदगी से ज्यादा जरूरी मान बैठी? मैं नहीं मानती कि सरकार के पिछले आंदोलनों को दबाने के रवैयों को देखते हुए इस आंदोलन से जुड़े नेता नहीं जानते होंगे कि सरकार का रवैया क्या हो सकता है?
अब तो ये दौर और लम्बा चलेगा..... सेनाएं जमेंगी, बैठकें होंगीं,मारे गए लोगों के परिवार वालों के लिए पैकेज बटेंगे। समझौते को लेकर कई नाटकीय बातें होंगी.... औऱ भी ना जाने क्या क्या? कोई बात नहीं.... अभी कुछ दिन हम इन सब मसलों के गवाह बनेंगे.... कई लोगों का कहना है कि आखिर देखते हैं कि इस खेल में किसकी जीत होती है औऱ किसकी हार? ओफ्फ.... कितना खूनी खेल है ये जीत हार का? बिल्कुल उसी तरह जैसे आज भी पिछड़े गांवों के मैदानों में मुर्गों की खूनी जंग होती है......

Wednesday, May 14, 2008

गुलाबी शहर में सात धमाके



दिनांक : 13 मई, 2008
दिन : मंगलवार
समय : शाम 7.30 बजे
शहर : ये वो शहर है जहां श्रद्धा लोगों का आम जज़्बा है
और जहां की गुलाबी फिज़ा उसकी कहानी कहती है, जी हां जयपुर।


वक्त किसी का सगा नहीं हुआ, सो जयपुर कैसे इससे अलग रह सकता था। यहां भी वही हुआ, जो देश के दूसरे कई शहरों ने झेला और उससे कहीं ज्यादा इस देश की जनता ने झेला है। शहर की दीवारें और लोग सात धमाकों से दहल गये और शहर की गुलाबियत देखते ही देखते लाल हो गयी। सिर्फ आधे घंटे का समय लगा, जब सनसनीखेज ख़बरों से दूर रहने वाला ये शांत शहर, देश के मीडिया पर तहलका मचा गया। कुछ ज्यादा ही निश्चिंत हो गया था शहर। यहां के लोग, तंत्र और सरकार भी। कई बार आगाह किया गया कि बांग्लादेशी आतंकवादियों से शहर को ख़तरा है। लेकिन न ही हम चेते और ना ही तंत्र।

चलते फिरते लगभग 70 लोग चिथड़ों में तब्दील हो गये। 200 लोग अस्पतालों में डॉक्टरों के मरीज़ों की फेहरिस्त में शामिल हुए और न्यूज कह रही थी कि फिलहाल मरने वालों की संख्या 70 है, लेकिन इसके 80 या 90 होने की उम्मीद है। आंकड़ों के बढ़ने का इंतज़ार? मोबाइलधारियों के फोन घनघनाने लगे। सामने से चिंता की आवाज़ें उभरतीं और इधर से खैरियत का भरोसा दिलाने की कोशिश। जिस रिक्शे वाले के पास बम विस्फोट हुआ, उसके पास मोबाइल नहीं था, वरना वह भी बजता। भले ही उसका मृत शरीर अब पहचाना भी न जा सके।

खैर, शहर के भीड़भाड़ वाले इलाकों में अभी भी भीड़ बरकरार थी। लेकिन पुलिस और तंत्र के ऊपरी लोगों की भीड़, जो आम तौर पर ऐसे इलाकों से नदारद रहती है। चुनावी दौरों के सिवाय। केन्द्र ने राज्य को कोसा और राज्य ने केन्द्र को। एक आया सरकार को कोस गया, दूसरा आया पुलिस तंत्र को कोस गया, तीसरा आतंकवादियों को कोस गया, चौथा अपराधियों को नहीं बख्शने की बात कह गया। नया नहीं था। कुछ जाना पहचाना सा लगा। पिछले विस्फोट के बाद के एपिसोड से कुछ मिलता जुलता।

इधर, न्यूज रूम में हलचल है कि आखिर कितने मरे? कौन-सा रिपोर्टर फोन लाइन पर है? भाई फलां फलां... मंत्रियों से बात करो... वहां मौजूद लोगों से बात करो। पुलिस अधिकारियों से बात करो। काश कि वो विस्फोट में मरे लोगों से भी बात कर पाते। उनसे ज्यादा सनसनी और इमोशन तो और कोई नहीं डाल सकता है न?

खैर कुछ देर में एक और खबर आयी। मरने वालों को ज़िंदगी के बदले पांच लाख और घायलों की पीड़ा पर एक लाख का मरहम। हर विस्फोट में आंकड़ों से कई ज्यादा मरे हैं और कहीं ज्यादा आहत हुए हैं, लेकिन सुरक्षा का मरना या मन का आहत होना, आंकड़ों का हिस्सा नहीं होते। उस पर आश्वासनों के हजारों मरहम लगते हैं, लेकिन ये घाव नहीं भरते। नासूर हो जाते हैं। आतंकियों ने भले ही खास दिन निश्चित किया था, खास जगहें भी चुनी, लेकिन मौत ने जात नहीं देखी। सभी को लील गयी। जनाजे भी उठ रहे हैं, तो शवयात्राएं भी जयपुर की सड़कों का हिस्सा हुई हैं। सबकी कहानी एक। किसी का बेटा उठा तो किसी का बाप। किसी का सुहाग तो किसी की मां का आंचल।

मीडिया में ख़बरें और भी हैं और रहेंगी। कुछ दिनों बाद हम ये सारा मंज़र भूल जाएंगे। जनजीवन सामान्य हो जाएगा। आखिर भूलना जरूरी भी तो है। अगली बार फिर ऐसे एपिसोड देख कर पुरानी बातें और आज का खौफनाक मंज़र याद करने के लिए!

तरूश्री शर्मा

Monday, May 5, 2008

मेरा विश्वास


आस का बादल उड़ता उड़ता,
मुझ तक ही तो आएगा।


रात की पंछी धुंधला धुंधला,

होकर के खो जाएगा।

लम्बे डग हैं,छोटा मग है,

अभी पार हो जाएगा।

रहते रहते हवा का साया,

अपने पंख फैलाएगा....

कुहरा यूं छंट जाएगा,

रोशन एक ख्याल आएगा।

तभी आस का छूटा बादल,

उड़कर मेरे पास आ जाएगा।

Saturday, May 3, 2008

उसकी पहुंच...


सोचती हूं हर पल,
दर्द के गहराते पैमाने,
इतने गहरे कि,
मेरी आवाजों की कोठरियां
गूंजने लगे,
और हंसी का-
एक सिरा तक,
उसे छू न सके।
मैं सोचती हूं कि,
फिर वो -
कैसे पहुंचता है,
वहां तक??

Thursday, April 24, 2008

कहानी - जिंदगी की लिफ्ट


वो हर दिन इसी आस में सोती और जागती थी कि जल्द ही उसे अपने जरूरत का काम मिल जाएगा। समय निकल रहा था और हिम्मत भी चुकती जा रही थी। लेकिन आस का कोना अभी रोशन था।
हर दिन भारी हो रहा था और वक्त की बेवफाई ने उसे कुंठा से संघर्ष करने के लिए भी कह दिया था। कई एहसास गुम हो रहे थे...
तभी दरवाजे पर कोई आहट हुई। फकीर जैसे द्वंद का एक्स रे कर चुका था।
बेटा, तेरा सारा काम बन जाएगा, गरीब की मदद कर।
शायद बात में जादू था, उसके हाथ से दो रुपए का सिक्का गिरकर, फकीर के कटोरे में खनखना उठा। ये वही हाथ थे जो कभी भीख मांगते लोगों को देखकर आगे जाने का इशारा करते थे। फकीर ने ढेरों दुआएं दीं, और असर जैसे उसी वक्त हुआ। मन शांत हो रहा था, खोई हिम्मत लौट रही थी और द्वंद खत्म। तत्काल बैग कंधे पर टांग वह बाहर निकल गई।
ये उसका रोज का काम था, अपने इर्द गिर्द के लोगों को देखकर जिंदगी का दर्शन गढ़ना और गाहे बगाहे अपनी परिस्थितियों से जोड़ कर उसे साबित करना। बस में बगल की सीट पर बैठी अधसोई सी महिला को देखकर उसने सोचा कि इन्हें अपनी मंजिल तक पहुंचने की कोई उत्सुकता नहीं। पास खड़े बुजुर्ग को देखकर लगा कि इनका सफर अभी भी जारी है, हार नहीं मानी इन्होंने। फिर तुरंत अपने जीवन से जोड़कर सोचने लगी, मेरी तरह शायद भगवान ने इनके जीवन में भी आराम नहीं बख्शा।
बस से उतरकर उसने फाइल को अपने हाथों में और मजबूती से दबा लिया, गोया ये उसके मंजिल तक पहुंचने का इकलौता सहारा हो। लिफ्ट में पांचवे फ्लोर का बटन दबा कर उसने अपने कपड़े और बाल ठीक किये और इंतज़ार करने लगी। कितनी आसानी से ऊंचाई चढ़ती है लिफ्ट और इसमें खड़े तमाम लोग...। क्या जिंदगी में ऊंचाईयां चढ़ने के लिेए कोई लिफ्ट नहीं होती?
वो इस उधेड़बुन में कई बार रही थी लेकिन ऐसी कोई लिफ्ट उसे अब तक नहीं मिल सकी थी, जिंदगी के सभी रास्ते उसने पगडंडियों से तय किए थे।
सामने की कुर्सी पर बैठा पैतालीस साल का अधेड़, उसके सी वी से ज्यादा उसकी तरफ देखने को आतुर था और वो चाहती थी कि उसके सी वी का एक एक शब्द पढ़ा जाए,उसकी मेरिट देखी जाए।
तो अपनी पसंद के बारे में बताएं।
सवाल में सवाल जैसा टोन नहीं,टोह लेने की उत्कंठा उसने भांप ली थी। खुद को सहज करते हुए जवाब दिया-
सर.... रीडिंग, म्यूज़िक, करंट अफेयर्स और डूब कर काम करना।
मिस वर्मा.... इस उम्र में तो डूबने के लिए कई चीज़ें हैं आपके पास....करंट अफेयर्स से दिलचस्पी हटाइए और अपने अफेयर में दिल लगाईए। नौकरी तो आसान सी चीज है....
अब तो बमुश्किल चिपकाई हुई मुस्कुराहट ने भी उसका साथ छोड़ दिया था। अपने स्त्रीत्व की इस लिफ्ट का एहसास उसे पहले भी कई बार कराया जा चुका है लेकिन दिल और दिमाग नाम के ऑपरेटिंग सिस्टम ने इसके उपयोग की इजाज़त कभी नहीं दी थी। हर बार की तरह आश्वासन का एक ढेला यहां भी उसे मिल चुका था और वो उसे ढोते हुए बाहर निकल आई।
लिफ्ट पांचवे फ्लोर से नीचे आ रही थी, नीचे का रास्ता उसे ऊपर आने के रास्तों से ज्यादा कठिन लग रहा था।
वो ऑफिस के बाहर खड़ी थी। ठंडी हवा बह रही थी लेकिन उसे धूप की चुभन का एहसास ज्यादा था। आज वो फिर इसी एहसास के साथ सोयेगी कि कल उसे नौकरी जरूर मिल जाएगी।

एक सफर


घर की इकलौती चिमनी...
डगमगाती थी।
रसोई के बचे तेल से,
कितना जल पाती थी?
बस्ती में बसा,
कोने का वो मकान...
रोशनी की परिभाषा,
यही चिमनी जताती थी।
और घर से बाहर,
कहीं दूर...
तेज़ धूप चिलिचलाती थी।
घर के सारे उलझे काम,
लौ के दम तोड़ने से पहले,
करने हैं पूरे,
दिन रात दुआओं में,
यही गुनगुनाती थी।
शाम ढल गई है,
उसे काम पर जाना है।
किसी की बारात के जश्न का,
झिलमिल लालटेन उठाना है।
यही तो सफर है उसका,
अंधेरे से उजाले तक।

Thursday, April 10, 2008

वो किसी का होगा...?


कौन कहता है कि वो मेरा होगा?

फिर उसकी आवारगी का क्या होगा?

साये को रिश्तों की आदत नहीं होती,

हर वक्त घुटने वाले का अंजाम क्या होगा?

परिंदों को परों का होगा बड़ा गुमान,

बेज़ा आंधियों में हौंसलों का क्या होगा?

मन की तपती रेत पर लहराती हों जब यादें,

पलभर ही सही, इस तपिश का क्या होगा?

घायल रूह पर रख जाते हैं जो मरहम,

तेरे नाम के कतरों के सिवा क्या होगा?

और कौन कहता है तरू, बेवफाई तोड़ती है,

लाख टुकड़ों में बंटे इस दिल का क्या होगा?

Tuesday, April 8, 2008

मां मुझे सांचे में ढालो


सुबह के अखबार में बलात्कार की खबर पढ़कर, समाज को कोसते हैं लाखों माता पिता। बेटी की सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते हैं, सो नहीं पाते। घर में बेटी को सवेरे उठते ही मां कहती है, बेटा उबटन लगा ले। बालों में हिना-दही लगा ले, चेहरे पर ले लगा ले। और हां... ठीक से रहा कर... आखिर ब्याह की उमर है, खूबसूरती बहुत जरूरी है। कौन सिखाता है कि बेटी अपने अंदर आग पैदा कर, खुद की सुरक्षा खुद कर, मन की खूबसूरती को जगा। एसे में एक बेटी ने खुद ही खोजा समस्या का हल...

मां मुझे सांचे में ढालो,
मां मुझे लोहा बना दो।
तुम मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।

दो मुझे विद्रोह कि मैं,
तेरे सारे दुख जला दूं।
जला दूं हर हेय दृष्टि,
सोख लूं तानों की वृष्टि।
तुम मुझमें वो आग डालो,
मुझको अंगारा बना दो।
मां मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।

तुम मुझे फौलाद कर दो,
सबका सहारा बन सकूं।
ना लूं अवलम्ब किसी का,
ना मैं लिपटी लता बनूं।
बनूं मैं वृक्ष विशाल कि,
सूरज से सीधे लड़ सकूं।
तुम मुझमें फौलाद डालो,
मुझको इस्पाती बना दो
मां मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।

उजालों की मैं आदी हूं....

अंधेरों से नफरत है मुझे,उजालों की मैं आदी हूं।
पतझड़ से जूझ के निकली,मैं वो बहार सादी हूं।
दुनिया का जुनून भी मुझे रोक ना पाएगा,
मैं वो सर्द कश्मीर की इंकलाबी वादी है।