Thursday, April 24, 2008

कहानी - जिंदगी की लिफ्ट


वो हर दिन इसी आस में सोती और जागती थी कि जल्द ही उसे अपने जरूरत का काम मिल जाएगा। समय निकल रहा था और हिम्मत भी चुकती जा रही थी। लेकिन आस का कोना अभी रोशन था।
हर दिन भारी हो रहा था और वक्त की बेवफाई ने उसे कुंठा से संघर्ष करने के लिए भी कह दिया था। कई एहसास गुम हो रहे थे...
तभी दरवाजे पर कोई आहट हुई। फकीर जैसे द्वंद का एक्स रे कर चुका था।
बेटा, तेरा सारा काम बन जाएगा, गरीब की मदद कर।
शायद बात में जादू था, उसके हाथ से दो रुपए का सिक्का गिरकर, फकीर के कटोरे में खनखना उठा। ये वही हाथ थे जो कभी भीख मांगते लोगों को देखकर आगे जाने का इशारा करते थे। फकीर ने ढेरों दुआएं दीं, और असर जैसे उसी वक्त हुआ। मन शांत हो रहा था, खोई हिम्मत लौट रही थी और द्वंद खत्म। तत्काल बैग कंधे पर टांग वह बाहर निकल गई।
ये उसका रोज का काम था, अपने इर्द गिर्द के लोगों को देखकर जिंदगी का दर्शन गढ़ना और गाहे बगाहे अपनी परिस्थितियों से जोड़ कर उसे साबित करना। बस में बगल की सीट पर बैठी अधसोई सी महिला को देखकर उसने सोचा कि इन्हें अपनी मंजिल तक पहुंचने की कोई उत्सुकता नहीं। पास खड़े बुजुर्ग को देखकर लगा कि इनका सफर अभी भी जारी है, हार नहीं मानी इन्होंने। फिर तुरंत अपने जीवन से जोड़कर सोचने लगी, मेरी तरह शायद भगवान ने इनके जीवन में भी आराम नहीं बख्शा।
बस से उतरकर उसने फाइल को अपने हाथों में और मजबूती से दबा लिया, गोया ये उसके मंजिल तक पहुंचने का इकलौता सहारा हो। लिफ्ट में पांचवे फ्लोर का बटन दबा कर उसने अपने कपड़े और बाल ठीक किये और इंतज़ार करने लगी। कितनी आसानी से ऊंचाई चढ़ती है लिफ्ट और इसमें खड़े तमाम लोग...। क्या जिंदगी में ऊंचाईयां चढ़ने के लिेए कोई लिफ्ट नहीं होती?
वो इस उधेड़बुन में कई बार रही थी लेकिन ऐसी कोई लिफ्ट उसे अब तक नहीं मिल सकी थी, जिंदगी के सभी रास्ते उसने पगडंडियों से तय किए थे।
सामने की कुर्सी पर बैठा पैतालीस साल का अधेड़, उसके सी वी से ज्यादा उसकी तरफ देखने को आतुर था और वो चाहती थी कि उसके सी वी का एक एक शब्द पढ़ा जाए,उसकी मेरिट देखी जाए।
तो अपनी पसंद के बारे में बताएं।
सवाल में सवाल जैसा टोन नहीं,टोह लेने की उत्कंठा उसने भांप ली थी। खुद को सहज करते हुए जवाब दिया-
सर.... रीडिंग, म्यूज़िक, करंट अफेयर्स और डूब कर काम करना।
मिस वर्मा.... इस उम्र में तो डूबने के लिए कई चीज़ें हैं आपके पास....करंट अफेयर्स से दिलचस्पी हटाइए और अपने अफेयर में दिल लगाईए। नौकरी तो आसान सी चीज है....
अब तो बमुश्किल चिपकाई हुई मुस्कुराहट ने भी उसका साथ छोड़ दिया था। अपने स्त्रीत्व की इस लिफ्ट का एहसास उसे पहले भी कई बार कराया जा चुका है लेकिन दिल और दिमाग नाम के ऑपरेटिंग सिस्टम ने इसके उपयोग की इजाज़त कभी नहीं दी थी। हर बार की तरह आश्वासन का एक ढेला यहां भी उसे मिल चुका था और वो उसे ढोते हुए बाहर निकल आई।
लिफ्ट पांचवे फ्लोर से नीचे आ रही थी, नीचे का रास्ता उसे ऊपर आने के रास्तों से ज्यादा कठिन लग रहा था।
वो ऑफिस के बाहर खड़ी थी। ठंडी हवा बह रही थी लेकिन उसे धूप की चुभन का एहसास ज्यादा था। आज वो फिर इसी एहसास के साथ सोयेगी कि कल उसे नौकरी जरूर मिल जाएगी।

एक सफर


घर की इकलौती चिमनी...
डगमगाती थी।
रसोई के बचे तेल से,
कितना जल पाती थी?
बस्ती में बसा,
कोने का वो मकान...
रोशनी की परिभाषा,
यही चिमनी जताती थी।
और घर से बाहर,
कहीं दूर...
तेज़ धूप चिलिचलाती थी।
घर के सारे उलझे काम,
लौ के दम तोड़ने से पहले,
करने हैं पूरे,
दिन रात दुआओं में,
यही गुनगुनाती थी।
शाम ढल गई है,
उसे काम पर जाना है।
किसी की बारात के जश्न का,
झिलमिल लालटेन उठाना है।
यही तो सफर है उसका,
अंधेरे से उजाले तक।

Thursday, April 10, 2008

वो किसी का होगा...?


कौन कहता है कि वो मेरा होगा?

फिर उसकी आवारगी का क्या होगा?

साये को रिश्तों की आदत नहीं होती,

हर वक्त घुटने वाले का अंजाम क्या होगा?

परिंदों को परों का होगा बड़ा गुमान,

बेज़ा आंधियों में हौंसलों का क्या होगा?

मन की तपती रेत पर लहराती हों जब यादें,

पलभर ही सही, इस तपिश का क्या होगा?

घायल रूह पर रख जाते हैं जो मरहम,

तेरे नाम के कतरों के सिवा क्या होगा?

और कौन कहता है तरू, बेवफाई तोड़ती है,

लाख टुकड़ों में बंटे इस दिल का क्या होगा?

Tuesday, April 8, 2008

मां मुझे सांचे में ढालो


सुबह के अखबार में बलात्कार की खबर पढ़कर, समाज को कोसते हैं लाखों माता पिता। बेटी की सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते हैं, सो नहीं पाते। घर में बेटी को सवेरे उठते ही मां कहती है, बेटा उबटन लगा ले। बालों में हिना-दही लगा ले, चेहरे पर ले लगा ले। और हां... ठीक से रहा कर... आखिर ब्याह की उमर है, खूबसूरती बहुत जरूरी है। कौन सिखाता है कि बेटी अपने अंदर आग पैदा कर, खुद की सुरक्षा खुद कर, मन की खूबसूरती को जगा। एसे में एक बेटी ने खुद ही खोजा समस्या का हल...

मां मुझे सांचे में ढालो,
मां मुझे लोहा बना दो।
तुम मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।

दो मुझे विद्रोह कि मैं,
तेरे सारे दुख जला दूं।
जला दूं हर हेय दृष्टि,
सोख लूं तानों की वृष्टि।
तुम मुझमें वो आग डालो,
मुझको अंगारा बना दो।
मां मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।

तुम मुझे फौलाद कर दो,
सबका सहारा बन सकूं।
ना लूं अवलम्ब किसी का,
ना मैं लिपटी लता बनूं।
बनूं मैं वृक्ष विशाल कि,
सूरज से सीधे लड़ सकूं।
तुम मुझमें फौलाद डालो,
मुझको इस्पाती बना दो
मां मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।

उजालों की मैं आदी हूं....

अंधेरों से नफरत है मुझे,उजालों की मैं आदी हूं।
पतझड़ से जूझ के निकली,मैं वो बहार सादी हूं।
दुनिया का जुनून भी मुझे रोक ना पाएगा,
मैं वो सर्द कश्मीर की इंकलाबी वादी है।