Tuesday, April 8, 2008

मां मुझे सांचे में ढालो


सुबह के अखबार में बलात्कार की खबर पढ़कर, समाज को कोसते हैं लाखों माता पिता। बेटी की सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते हैं, सो नहीं पाते। घर में बेटी को सवेरे उठते ही मां कहती है, बेटा उबटन लगा ले। बालों में हिना-दही लगा ले, चेहरे पर ले लगा ले। और हां... ठीक से रहा कर... आखिर ब्याह की उमर है, खूबसूरती बहुत जरूरी है। कौन सिखाता है कि बेटी अपने अंदर आग पैदा कर, खुद की सुरक्षा खुद कर, मन की खूबसूरती को जगा। एसे में एक बेटी ने खुद ही खोजा समस्या का हल...

मां मुझे सांचे में ढालो,
मां मुझे लोहा बना दो।
तुम मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।

दो मुझे विद्रोह कि मैं,
तेरे सारे दुख जला दूं।
जला दूं हर हेय दृष्टि,
सोख लूं तानों की वृष्टि।
तुम मुझमें वो आग डालो,
मुझको अंगारा बना दो।
मां मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।

तुम मुझे फौलाद कर दो,
सबका सहारा बन सकूं।
ना लूं अवलम्ब किसी का,
ना मैं लिपटी लता बनूं।
बनूं मैं वृक्ष विशाल कि,
सूरज से सीधे लड़ सकूं।
तुम मुझमें फौलाद डालो,
मुझको इस्पाती बना दो
मां मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।

2 comments:

Unknown said...

तपती रेत पर आंधियों ने उकेरे जो नाम, उन्हें सलाम। एक बेहतरीन कविता पर तरु को बधाई और ब्लोग पर आने के लिये खिंचाई - बस कूद जाइये मैदान में, तो तुम ही बाकी थी, अब बाकी ब्लोगर कहां जाए।
इस सिलसिले को जिंदा रखना, आमीन!
अमित पुरोहित

रवि रतलामी said...

अच्छे उपमानों के साथ बढ़िया कविता.