वो वहां की थी जहां साधन थे लेकिन स्वतंत्रता नहीं। व्याकुलता थी लेकिन राहत का कोई उपाय नहीं। उसके पास पंख थे लेकिन उड़ने के लिए आसमान नहीं। वो चुप नहीं बैठी.... और अपने आस पास के बंधन तोड़कर खुले आसमान की ओर हसरत से देखने लगी।
मां से जाकर कह दूंगी,
बापू को समझा दूंगी
बंद घर के रोशनदान से,
ये छोटा आकाश नहीं देखूंगी।
विस्तृत नभ के विस्तार का,
मेरी आंखें वरण करेंगी।
आशाएं फिर पसर पसर कर,
मेरे मन में जगह करेंगी।
फिर मैं क्यों देखूं टूटा चांद,
मैं क्यों देखूं मुट्ठी भर गगन,
मैं क्यों देखूं गिनती के तारे,
जबकि मेरे भी हो सकते हैं,
ये सब ही सारे के सारे।
अधिकार मिलते नहीं कभी,
सजी थाली के आकारों में।
वो तो सिर्फ छीने जाते हैं,
चाहे हो वो परिवारों में।
अपने हक पाने को अब मैं,
पूरा जोर लगा दूंगी।
बंद घर के रोशनदान से,
ये छोटा आकाश नहीं देखूंगी।
वक्त की रेत मेरी मुट्ठी से,
फिसल कर फैली अभी नहीं है।
सपनों की दुनिया भी मुझसे,
अनजानी अनबोली नहीं है।
मन की जकड़न तोड़ के,
मैं अब विद्रोह की वीणा छेड़ूंगी।
बंद घर के रोशनदान से,
ये छोटा आकाश नहीं देखूंगी।
9 comments:
वक्त की रेत मेरी मुट्ठी से,
फिसल कर फैली अभी नहीं है।
सपनों की दुनिया भी मुझसे,
अनजानी अनबोली नहीं है।
bhut khubsurat. likhati rhe.
सुंदर कविता
सारे सच को एक कविता में समा दिया आपने ...
आहा !! बहुत ही सुंदर कविता
आहा! कितना सुंदर चित्रण.. बहुत बहुत बधाई आपको इतनी सुंदर रचना के लिए
बहुत सुंदर भाव पूर्ण लगी आपकी यह कविता
फिसल कर फैली अभी नहीं है।
सपनों की दुनिया भी मुझसे,
बेहतरीन भावाव्यक्ति. बधाई.
अधिकार मिलते नहीं कभी,
सजी थाली के आकारों में।
वो तो सिर्फ छीने जाते हैं,
चाहे हो वो परिवारों में।
अपने हक पाने को अब मैं,
पूरा जोर लगा दूंगी।
Bilkul satya wachan.
laajawab... aapki kavita padhke bahut hi achha laga...aisa laga jaise hamare samaj ke beech ki hi sacchai ho...ladkiyo ko apne adhikaro k liye avashya hi ladna chahiye... tabhi is samaj ka kuch bhala ho paaega... aapki is khubsurat rachna k liye badhai.
Madhu
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