Saturday, June 7, 2008
मां मुझे लोहा बना दो!!!!!
बलात्कार की खबरें...भले ही अंदर तक हिला देती हों, लेकिन आज भी घरों में मां अपनी बेटी को सुबह सवेरे उठने से लेकर रात को सोने तक यही हिदायतें देती है कि बेटा तेरी खूबसूरती कैसे निखर सकती है या कैसे तू गोरी और सुंदर बनी रहेगी...और हां... ठीक से रहा कर... आखिर ब्याह कराना है, खूबसूरती बहुत जरूरी है। कौन सिखाएगा कि बेटी अपने अंदर आग पैदा कर, खुद की सुरक्षा खुद कर, मन की खूबसूरती को जगा। लेकिन एक बेटी ने खुद ही खोजा आज की असुरक्षा से लड़ने का उपाय...
मां मुझे सांचे में ढालो,
मां मुझे लोहा बना दो।
तुम मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।
दो मुझे विद्रोह कि मैं,
तेरे सारे दुख जला दूं।
जला दूं हर हेय दृष्टि,
सोख लूं तानों की वृष्टि।
तुम मुझमें वो आग डालो,
मुझको अंगारा बना दो।
मां मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।
तुम मुझे फौलाद कर दो,
सबका सहारा बन सकूं।
ना लूं अवलम्ब किसी का,
ना मैं लिपटी लता बनूं।
बनूं मैं वृक्ष विशाल कि,
सूरज से सीधे लड़ सकूं।
तुम मुझमें फौलाद डालो,
मुझको इस्पाती बना दो
मां मुझे बेटी समझकर,
मुझमें नर्मी तो ना डालो।
तरूश्री शर्मा
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16 comments:
बहुत बढ़िया रचना..
simply superb :)
ye hui na baat. ab laga ki kuch creative kiya gaya hai. jaroori hai isha hi kuch karane ka. maja aaya, kuch aisa hi karo. best wisses.
shailendra
अच्छी रचना. बहुत अच्छे ख़याल.
achcha bana diya jayega. intajar karo.
shashibhuddin thanedar
very nicely expressed and this is the need of the hour
बहुत उम्दा तरीके से बात रखी है, बधाई.
vahut umda khayaalat....prerak rachna
aaj ke vaqt ke daur ke mutaabik ...
जो लोग जान-बूझके नादान बन गये।
मेरा ख़याल है कि वो इन्सान बन गये।।
हम हश्र में1 गये थे मगर कुछ न पूछिये।
वो जान-बूझकर वहां अनजान बन गये।।
हंसते हैं हमको देख के अरबाबे-आगही2।
हम आपके मिजाज की पहचान बन गये।।
मंजधार तक पहुंचना तो हिम्मत की बात थी।
साहिल के आस-पास ही तूफ़ान बन गये।।
इन्सानियत की बात तो इतनी है शेख3 जी।
बदक़िस्मती से आप भी इन्सान बन गये।।
कांटे थे चंद दामने-फ़ितरत में4 ऐ ‘अदम’।
कुछ फूल और कुछ मेरे अरमान बन गये।।
kaash ki ye tewar har aurat ke bheetar aa jaaye to kya kehne.
bahut badhiya !
choo gayi!
Ishwar ne sirf stri ko hi yeh shakti di hai ki vo kabhi kapas si narm aur kabhi lohe si sakht ho sakti hai.
is Durga Roop ko Pranam!
Tarushri aapka comment apne blog par padhkar aapse ek judao mahsoos kar rahi hun.dhanyavad aapke mulyavan comment ke liye.
आज फिर आपकी पोस्ट पढ़ रही थी. मन एक बार फिर गहरे तक भर गया.
फिर केदारनाथ अग्रवाल की कविता याद आ गई-
मैंने उसको
जब-जब देखा,
लोहा देखा,
लोहा जैसा--
तपते देखा,
गलते देखा,
ढलते देखा,
मैंने उसको
गोली जैसा
चलते देखा !
तरुश्री, आपकी ये कविता मुझे अच्छी लगी। हालांकि मैं कविताएँ समझने में अपने को कई बार असहज महसूस करता हूँ। वैसे माँ तो अपनी बेटियों को कोमल ही बनाए रखना चाहती हैं, हाँ पिता जरूर उन्हें मजबूत बनाने की कोशिश करते हैं। वैसे उदयपुर ( या शायद जयपुर) में कौन से अखबार में काम करती हैं आप..?? क्योंकि मैं जयपुर दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका, दोनों ही अखबारों में काम कर चुका हूँ.।
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