Wednesday, July 29, 2009

यही गलतफहमी थी शायद....

वो आए तो हो गया यकीं हमको..
एक इसी की आरजू थी शायद।


दरख्तों के रोने का इल्म ना था,
परिंदों के उड़ने की जिद थी शायद।


फिक्र ना थी कि पाना है तुम्हे,
फिक्र तो जुदाई की थी शायद।



दामन-दामन जर्रा जर्रा बुत बना,
उसीके होने से रौनक थी शायद।

समझते थे कि समझा लेंगे, 
यही गलतफहमी थी शायद।



रास्ते संग थे तो साथ ना थे,
हुए जुदा तो करीबी थी शायद।


खुदा से बढ़कर हम हुए हैं कब,
खुदाई का कोई कतरा थी शायद।





Wednesday, July 22, 2009

चांद पाने की जिद है जिंदगी!!!

आज फिर दिल ने एक तमन्ना की,
आज फिर दिल को हमने समझाया.



हमेशा लगता है दिल तमन्नाओं का ढेर है जिसमें उम्मीदें बुदबुदे की तरह अंगड़ाई लेती हैं...और जब पकड़ने की कोशिश करो...हाथ ही नहीं आती। कौन है जो दावा करता हो,कि मैं इसे पकड़ने की कोशिश नहीं करता। क्यों ना की जाए...फिर क्या सांस लेना और छोड़ देना जीवन कहा जाएगा? मैं नहीं मानती। जिंदगी की परिभाषा इस बुदबुदे के फूटने और इसे पकड़ने का उपक्रम ही तो है। किसके कितने बुदबुदे फटे और कितने पकड़ने में वो कामयाब हो गया... जिंदगी इसका नाम भी नहीं। बल्कि इसका जरूर हो सकती है कि किसने कितने बुलबुले पकड़ने की कोशिश की।
नाकामियों से जिंदगी की दिशा निर्धारित होती है...दशा नहीं। बल्कि सफलताएं कई बार दिग्भ्रमित करती हैं। आप भटकने लगते हैं और खुशी के सैलाब में एहसास तक नहीं कर पाते। मैं भी भटकी हूं कई बार...आप भी भटके हैं...सवाल है उस भटकाव से कैसे खुद को बाहर खींच लाएं? बहुत मेहनत करनी पड़ती होगी ना...गुरेज नहीं,क्योंकि भटकाव के उद्वेलन से बाहर आने के लिए आप उतनी मेहनत कर सकते हैं जितनी खोती जिंदगी को वापस पा लेने के लिए।
आज ग्रहण था...मैं सूरज और चांद की लुका छिपी से बनने वाली हीरे की अंगूठी (डायमंड रिंग) देखने के लिए उत्सुक थी। मैंने देखी...लगा एक नया बुदबुदा मिल गया है पकड़ने के लिए। फिर कवायद शुरू होगी...लगा जैसे जिंदगी की उमंग लौट आई है। बचपन में मैंने कभी चांद पकड़ने की जिद या कोशिश नहीं की। उम्र बढ़ने के साथ ये जिद कहां से आई,पता नही।
हां इतना पता है इस जिद का एहसास जब-जब हुआ,लगा कि मैं जिंदगी जी रही हूं।
अब मुझे नई रिंग चाहिए... प्रतीकात्मक है। पहले ही कह चुकी हूं मिलना या ना मिलना जिंदगी नहीं, उसे पाने की कोशिश करना जिंदगी है।

चांद पकड़ने की जिद है जिंदगी,
पाने की ख्वाहिश है जिंदगी।
तमाम उम्र जियो ना जियो,
खोकर पाने की कवायद है जिंदगी।


सितारा तो हमेशा दूर होता है,
हसरतों का साथ कब काफूर होता है....
चिड़ियों के बिछौने सी सख्त है राहें,
उन्हें नर्म बनाना ही तो है जिंदगी।


रात से सुबह औऱ सुबह से शाम,
गंवाकर हर दिन अंधेरा तमाम,
फिर दिन उगता है शाम ढलती है,
इसका इंतजार ही तो है जिंदगी।

Friday, March 20, 2009

वक्त लगा पर किस्सा खत्म हुआ



(उलझा उलझा सा है बहुत कुछ। कई बार दिमाग इतने गहरे और उथले स्तर पर किलोलें करता है कि भाव पकड़ना मुश्किल हो जाए। ऐसे ही किसी चंचल और व्यग्र वक्त को शब्दों में पकड़ने की कोशिश।)

कई कई दिनों की बेचैनी और आए दिन की कलह... बादल छंटने को हैं। रिश्ते की डोर को कब तक उलझाए रखा जाए। दर्द था कि दवा बनता ही नहीं था... उल्टे दिन पर दिन जहर होता जाता। 

क्या सोच के सिरे इतने कड़े हो सकते हैं या डर का शिकंजा इतना मजबूत कि इंसान अपने आप से दूर होता चला जाए... अपनी सुविधाओं तक को ताक में रख दे और बेंइंतहा मोहब्बत तक इस ऊहापोह में दम तोड़ दे... 

ये उसके जीवन का पहला अनुभव था।
क्या अपनी सोच से बनी काल्पनिक दुनिया की दीवारें इतनी मजबूत हो सकती हैं कि कोई उन दीवारों पर सिर फोड़ फोड़ 
कर मर जाए...पर वे ना टूटें। परम्पराएं और उससे निकलने के तर्क भोंथरे होने लगें और इस भोंथरी धार पर जिंदगी के सपने कट-कट कर लहुलुहान हो जाए...


सबसे ऊपर इस सबमें आदर्श नीतियों का कोई पुट नहीं,
स्थिति के विश्लेषण की कोई सम्भावना नहीं... फिर इसे सही ठहराएं तो कैसे?

वो कोई स्थिति नहीं जिसमें राहत की कोई किरण नजर आती हो लेकिन सामने वाला आपको उस नीम अंधेरे में सहज रहने की नसीहत दे...बिना किसी दिलासे के। बेहद मुश्किल होता है तर्कों की मजबूत डोर छोड़कर बिना किन्हीं तर्कों वाले मौन कमजोर तिनके से डूबने से बचाने की उम्मीद लगाना। 

ऐसा दिमाग तो कतई नहीं कर सकता, बेशक दिल का मामला ये जरूर हो सकता है। लेकिन दिल को भी खाद की जरूरत होती है.. दिलासे के दो बोल या हिम्मती बातें दिल पर हाथ तो जरूर रखती हैं। दिल धड़कने लगता है.... और हाथ उसे महसूस करने। 

हालांकि इस भाव में रहने की भी कोई उम्र तो होती होगी ना... उम्र पूरी हो गई... बिना किसी उम्मीद के पूरा हुए.... चलो एक किस्सा खत्म हुआ। 

दुखद या सुखद से इतर एक मिले जुले भाव वाला अंत। किसी नए किस्से के सुखद अंत की शुभकामनाएं दीजीए।

Wednesday, January 28, 2009

कटी-कटी एक पतंग/जंग जारी है?


एक अरसे तक खुद को कटी पतंग पाया उसने। लेकिन इर्द गिर्द की दूसरी कटी पतंगों से कुछ अलग!!
सबसे ज्यादा फटी पतंग थी लेकिन हौंसला इतना कि एक हाथ मिलते ही सबसे ऊपर उड़ ले। लेकिन वो हाथ....?
हौसलों के बावजूद एक भाव था जिसे वो क्या कहे... अपनी अकमर्ण्यता,नाउम्मीदी या थकान.... समझ नहीं पाती, उसे उन हाथों का इंतजार कभी नहीं रहा। सारी हलचल अपने अंदर रखते हुए फड़फड़ाती थी,अपनी ऊर्जा का उपयोग करने के लिहाज से शायद। हर पल सोचती जरूर थी,ये ऊर्जा उसे कितना ऊपर पहुंचा सकती है.... औऱ वो इसे व्यर्थ गंवा रही है। हां, वो ये जानती थी कि किसी एक दिन अपनी ऊर्जा के सही उपयोग के लिए,आज फड़फड़ाना बेहद जरूरी है ताकि जड़ता हावी ना हो जाए। आस-पास की पतंगें उसे निरा मूर्ख समझती थीं औऱ कुछ उसे अपना नेता मान चुकी थीं। बस यही था जो उसे बताता था कि कौन जड़ है और किसमें अभी जान बाकी है।

दूर कहीं एक देश सा था...कुछ लोग उसे गांव भी कहते थे। उसे वो दुनिया लगता था। दरअसल यहीं वो बनी थी,यहीं उसने कई बार आसमान की ऊंचाइयों का स्वाद चखकर जमीन की धूल चाटी और यहीं से कट कर भी गिरी थी। उसकी पूरी दुनिया का विस्तार वहीं से शुरु होता था और वहीं से खत्म हुआ। कहां आ गिरी...शायद अब कोसों दूर हो। वहीं जाना चाहती है वापस। चौराहे के पास वाले बरगद के नीचे बैठी दादी कहती थी,औरत की फितरत ही होती है,जहां से लात पड़े भावनाओं में बंधकर वहीं लौट आना। तभी तो औरत की स्थिति सुधरती नहीं कभी। क्या मैं भी एक औरत सी हूं... नहीं!!!! सिर झटका उसने। एक दिन आसमान में उड़ते परिंदे के पांव से उसका मांजा लगा कि परिंदा धड़धड़ाता नीचे आ गिरा। मुंह में दाना था उसके... दादी ने कहा था घर लौट रहा था ये अपने बच्चे को खाना खिलाने के लिए...अब अपने पैर के दर्द से ज्यादा इसे बच्चे की भूख का दर्द सताएगा। आखिर औरत है ना ये।
उसे भी तो दर्द होता था उन बच्चों का जो उसे उड़ाकर खूब खुश होते थे...उछलते थे। अब.... ओह। क्या वो भी एक औरत है....हममम।
खैर, सोच का एक सिरा और खुला। एक दिन छुटकु की लाई एक पतंग छुटकी उड़ाने ले चली। जैसे ही छुटकु को पता चला उसने शुरु कर दी छुटकी की पिटाई। रुलाई सुनकर चौपाल से मूंछों वाले चाचा भी चले आए। सारी बात सुनकर लगे छुटकी को डांटने.... पतंग उड़ाना तेरा खेल नहीं है। घर में चूल्हा चौका कर... छोरे को उड़ाने दे पतंग। मतलब क्या मैं लड़कों के ही मनोरंजन का साधन हूं.. तो क्या मैं भी औरत....हां शायद मैं वही हूं, अब तो वो बेशक सिर भी नहीं झटक पाई थी।
खुद को बिल्कुल कटा-फटा और कटा सा पाया उसने। कुछ था जो सिर उठाने को था, और बहुत कुछ था कुचलने के लिए।

ये जंग तो सदियों से जारी है....
जो पंख कल आसमां का फख्र थे,
आज जमीन पर भी भारी है...
कोई कहने ना पाए कि वो सिर्फ नारी है।

Friday, January 16, 2009

बस एक बार....

कुछ ही वक्त गुजरा होगा,
जब तुम मेरे सब कुछ थे..
जिसे मैं नहीं दे पाती थी कोई नाम।

उस धुरी की तरह...
जिसके इर्द-गिर्द,
मेरी जिंदगी सा कुछ टंगा था...
और मैं कोशिश करती थी,
उसे खींच लाने की अपने पास...
कई बार....
लेकिन हर बार नाकाम।
शायद तुमने भांप लिया था-
तभी तो आए थे एक दिन-
लौटाने मेरी जिंदगी सा वो कुछ,
जो बोझ सा टंगा था तुम्हारे इर्द-गिर्द।
हां...
मैं उसे लिवाना कब चाहती थी...
और तुमने भी कब पूछी थी,
मुझसे मेरी ख्वाहिश...
तुम्हीं तो कहते थे ना...
ख्वाहिशें नर्म होती हैं,
मखमली कालीन पर अलसाई सी..
और कभी-कभी,
जिंदगी की रेत पर फिसलती सी।

अरसा हो गया है अब...
और जिंदगी ने देख लिया है,
ख्वाहिशों का फलसफा...
कुछ कुछ तुम्हारे फलसफे से-
मिलता-जुलता सा।

तुम आना एक बार...
देखना कि कैसे ख्वाहिशों से,
बनती है जिंदगी...
रेत का ढेर और
कैसे हवा का एक झोंका,
उस पर बना जाता है
तुम्हारा अक्स...
तुम आना जरूर,
बस एक बार....
आओगे ना?