Saturday, August 23, 2008

सवालों के ढेर से....धुंए के छल्ले


रातें हर रोज खाली खाली सी रहने लगी थीं....
जैसे तारे आसमान से अब चिपकते ही ना हों और चांद की डोरी आकाश से लटकती ही नहीं थी। रात का सन्नाटा जैसे होता ही नहीं था और अंधेरे की कालिख पसरती ही नहीं थी।
दिन जैसे दिन की तरह नहीं होते थे....
सूरज का रथ जैसे दौड़ता ही नहीं था और और धूप के गोले जैसे उतरते ही नहीं थे। दिन का शोर जैसे चिल्लाता ही नहीं था और रोशनी की पीली खिड़कियां खुलती ही नहीं थी....
वो इस अजीब से समय में गुत्थम गुत्था सवालों के जाल में खोया रहता था....गोया,
ये दीवार क्यों नहीं चलती और चलती होती तो कहां तक पहुंच चुकी होती? क्या ये मुझसे तेज चल पाती और क्या मेरी तरह तेज दौड़ पाती? मेरी अनुपस्थिति में मेरे स्केट्स पहन कर घर में कोहराम मचा देती या कोने में बैठकर सिगरेट के कश खींचने का मजा लेती? कभी मन करने पर दुष्यंत के शेर पढ़ती या मैक्सिम गोर्की के उपन्यास से जीवन का दर्शन खोजती.... औऱ आखिर में यह सवाल कि....आह, मैं यह सब क्यों सोच रहा हूं।
खैर.... ना दिन बदलते थे ना शामें और ना ही रात.....
काम पर जाता था पर किसी से बात करने में जैसे उसकी नानी मरती.... आस पास काम करती लड़कियों को देखकर ऊब होने लगती.... और सवालों का क्रम शुरू हो जाता...
क्यों रोज सज धज के आती हैं, कितना समय लगाती हैं? और आखिर क्यों ? क्या मुटल्ले पांडे को रिझाने के लिए? या पान की पीक से फुर्सत ना पाने वाले बनवारी से इश्क लड़ाने के लिए ? अगर दोनों से नहीं तो इस दफ्तर में तीसरा कौन? मैं? मुझे पटाने के लिए ? और अगर हां... तो मैं इन्हें देखकर खुश क्यों नहीं होता? क्यों ये देविका की तरह.... और ओह... देविका का नाम आते ही जैसे उसके सारे सवाल खत्म हो जाते।
ये एक टूटी दास्तान थी... जिसके एक छोर पर आते ही उसके दिन रात, असली दिन रात जैसे हो जाते... अभी जैसे नहीं रहते.... सारे सवालों को पंख लग जाते और वे उड़कर उसकी पहुंच से कहीं दूर हो जाते। उस दिन वो हिलोरें लेता घर आता... कोने में बैठकर पेट की गहराई जितने गहरे सिगरेट के कश खींचता, अपनी पसंदीदा गजल में खो जाता....
कच्ची दीवार हूं... ठोकर ना लगाना मुझको...
उसकी रूह, सिर्फ संगीत को महसूस कर पाती, उसके दिमाग के लिए तो गजल के शब्द और संगीत जैसे पहुंच से बहुत परे की चीज हो जाते.....
ऐसे ही कभी अवतार सिंह पाश की कविता के फड़फड़ाते पन्ने पर दिखती चंद लाइनें...
सबसे खतरनाक होता है,
मुर्दा शांति से भर जाना...
ना होना तड़प का,
सब कुछ सहन कर जाना,
घर से जाना काम पर
और काम से लौटकर घर आना...
सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना।
ओह....... माक्सॆ का अलगाववाद.... हुंह... जैसे उसके मुंह का स्वाद कसैला हो जाता। दिन, एक बार फिर दिन नहीं रहते.... रातें, रातों की तरह नहीं रहतीं। और सवालों के ढेर एक बार फिर उसके मुंह पर धुंए के छल्ले उड़ाने लगते....

Tuesday, August 19, 2008

लटके हैं अरमां उल्टे


जुड़ने को था जो,
अभी बिखर गया,
बिना कहे...
सफर बदल गया।
ख्वाब था एक,
जुड़ा सा दिखता था,
पास आते ही,
मकड़जाल पर जमी,
बारिश की बूंदों सा..
कतरा कतरा ढुलक गया।

ताउम्र सोचने की
ख्वाहिश थी,
उससे मिलने की
एक गुजारिश थी,
वक्त से वफाई ना हुई,
घरौंदों सा बिगड़ गया।
मेहमां निकल गए,
बुलबुले की तरह,
अरमान ढह गए
सिलसिले की तरह,
रात का पंछी उड़ा,
चमगादड़ की तरह।
लटके हैं अरमां उल्टे
तिलिस्म की तरह।
सिर से गुजरते साये,
बादलों की तरह...
गोया कुछ पल बरसेंगे,
शायद ना भी बरसें।

बिखरे टुकड़े समेटने की
हिम्मत रख,
टूटे ख्वाबों में नया सुख
खोजने की हिम्मत रख।