Saturday, May 24, 2008

पुराना हो गया है ये राग....




दिल भी ये ज़िद पर अड़ा है किसी बच्चे की तरह,
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं।

राजस्थान में गुर्जरों ने आरक्षण की ज़िद पकड़ ली और अपनी मांगें मनवाने के लिए आम जनता की परेशानी से मुंह मोड़ लिया। कई दिनों पहले पटरियां उखाड़ने की ना सिर्फ धमकी दी, बल्कि डेढ़ किलोमीटर का ट्रेक उखाड़ भी लिया। वक्त था राज्य के बम धमाकों की मार झेलने के बाद दसवां दिन। कितना स्वार्थी हो सकता है एक समूह? क्या संवेदनाएं खुद तक आकर अपनी जिम्मेदारियां खत्म कर लेती हैं? जहां विस्फोट से लड़ने के जज्बे को देखकर देश का मीडिया प्रदेश वासियों की तारीफ करते नहीं अघा रहा था, वहां एक नया एपिसोड जिसमें २१ लोगों के मारे जाने की खबरें सामने आ रही हैं।
अब जब आरक्षण खत्म करने की बातें की जा रही हों,तो गुर्जरों का आरक्षण की मांग को लेकर यूं तांडव मचाना असामयिक सा लगता है। हालांकि आसान है कि और लोगों की तरह पांव पर पांव चढ़ाए हुए मैं भी सरकार को कोस लूं और कई लोगों के मारे जाने का मातम मनाते हुए, सारे कांड को सरकार की दमनकारी नीतियों का नाम दे दूं। लेकिन मैं ना तो विपक्ष की कोई बड़ी नेता हूं और ना गुर्जरों के आंदोलन का हिस्सा। कुछ लोग कह सकते हैं कि जांके पांव फटे ना पड़े बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई। या ये भी कह सकते हैं कि ए सी में बैठकर कम्प्यूटर पर हर्फे लिखने वाला, जमीन से जुड़े आदमी की तपन को ज़ुबान नहीं दे सकता। दरअसल मैं इस किसी भी टिप्पणी से बुरा मानने वाली व्यक्तित्व की स्वामिनी नहीं हूं क्योंकि इस देश में राष्ट्रपति से लेकर आम आदमी तक को कुछ भी सुनना पड़ सकता है। सच कहूं तो मुझे इन लोगों के मारे जाने का उतना ही दुख है जितना विस्फोट में मारे गए लोगों का.... क्योंकि दोनों का कोई दोष नहीं था। दोनों के कंधों पर बंदूक रखी गई थी, एक कांड में बाहर के आतंकवादियों ने तो दूसरे कांड में अपने ही घर के अंदर के अपने बनने वाले नेताओं ने। जनता फिर छली गई.... अपने हक को अपनी जिंदगी से ज्यादा जरूरी मान बैठी? मैं नहीं मानती कि सरकार के पिछले आंदोलनों को दबाने के रवैयों को देखते हुए इस आंदोलन से जुड़े नेता नहीं जानते होंगे कि सरकार का रवैया क्या हो सकता है?
अब तो ये दौर और लम्बा चलेगा..... सेनाएं जमेंगी, बैठकें होंगीं,मारे गए लोगों के परिवार वालों के लिए पैकेज बटेंगे। समझौते को लेकर कई नाटकीय बातें होंगी.... औऱ भी ना जाने क्या क्या? कोई बात नहीं.... अभी कुछ दिन हम इन सब मसलों के गवाह बनेंगे.... कई लोगों का कहना है कि आखिर देखते हैं कि इस खेल में किसकी जीत होती है औऱ किसकी हार? ओफ्फ.... कितना खूनी खेल है ये जीत हार का? बिल्कुल उसी तरह जैसे आज भी पिछड़े गांवों के मैदानों में मुर्गों की खूनी जंग होती है......

Wednesday, May 14, 2008

गुलाबी शहर में सात धमाके



दिनांक : 13 मई, 2008
दिन : मंगलवार
समय : शाम 7.30 बजे
शहर : ये वो शहर है जहां श्रद्धा लोगों का आम जज़्बा है
और जहां की गुलाबी फिज़ा उसकी कहानी कहती है, जी हां जयपुर।


वक्त किसी का सगा नहीं हुआ, सो जयपुर कैसे इससे अलग रह सकता था। यहां भी वही हुआ, जो देश के दूसरे कई शहरों ने झेला और उससे कहीं ज्यादा इस देश की जनता ने झेला है। शहर की दीवारें और लोग सात धमाकों से दहल गये और शहर की गुलाबियत देखते ही देखते लाल हो गयी। सिर्फ आधे घंटे का समय लगा, जब सनसनीखेज ख़बरों से दूर रहने वाला ये शांत शहर, देश के मीडिया पर तहलका मचा गया। कुछ ज्यादा ही निश्चिंत हो गया था शहर। यहां के लोग, तंत्र और सरकार भी। कई बार आगाह किया गया कि बांग्लादेशी आतंकवादियों से शहर को ख़तरा है। लेकिन न ही हम चेते और ना ही तंत्र।

चलते फिरते लगभग 70 लोग चिथड़ों में तब्दील हो गये। 200 लोग अस्पतालों में डॉक्टरों के मरीज़ों की फेहरिस्त में शामिल हुए और न्यूज कह रही थी कि फिलहाल मरने वालों की संख्या 70 है, लेकिन इसके 80 या 90 होने की उम्मीद है। आंकड़ों के बढ़ने का इंतज़ार? मोबाइलधारियों के फोन घनघनाने लगे। सामने से चिंता की आवाज़ें उभरतीं और इधर से खैरियत का भरोसा दिलाने की कोशिश। जिस रिक्शे वाले के पास बम विस्फोट हुआ, उसके पास मोबाइल नहीं था, वरना वह भी बजता। भले ही उसका मृत शरीर अब पहचाना भी न जा सके।

खैर, शहर के भीड़भाड़ वाले इलाकों में अभी भी भीड़ बरकरार थी। लेकिन पुलिस और तंत्र के ऊपरी लोगों की भीड़, जो आम तौर पर ऐसे इलाकों से नदारद रहती है। चुनावी दौरों के सिवाय। केन्द्र ने राज्य को कोसा और राज्य ने केन्द्र को। एक आया सरकार को कोस गया, दूसरा आया पुलिस तंत्र को कोस गया, तीसरा आतंकवादियों को कोस गया, चौथा अपराधियों को नहीं बख्शने की बात कह गया। नया नहीं था। कुछ जाना पहचाना सा लगा। पिछले विस्फोट के बाद के एपिसोड से कुछ मिलता जुलता।

इधर, न्यूज रूम में हलचल है कि आखिर कितने मरे? कौन-सा रिपोर्टर फोन लाइन पर है? भाई फलां फलां... मंत्रियों से बात करो... वहां मौजूद लोगों से बात करो। पुलिस अधिकारियों से बात करो। काश कि वो विस्फोट में मरे लोगों से भी बात कर पाते। उनसे ज्यादा सनसनी और इमोशन तो और कोई नहीं डाल सकता है न?

खैर कुछ देर में एक और खबर आयी। मरने वालों को ज़िंदगी के बदले पांच लाख और घायलों की पीड़ा पर एक लाख का मरहम। हर विस्फोट में आंकड़ों से कई ज्यादा मरे हैं और कहीं ज्यादा आहत हुए हैं, लेकिन सुरक्षा का मरना या मन का आहत होना, आंकड़ों का हिस्सा नहीं होते। उस पर आश्वासनों के हजारों मरहम लगते हैं, लेकिन ये घाव नहीं भरते। नासूर हो जाते हैं। आतंकियों ने भले ही खास दिन निश्चित किया था, खास जगहें भी चुनी, लेकिन मौत ने जात नहीं देखी। सभी को लील गयी। जनाजे भी उठ रहे हैं, तो शवयात्राएं भी जयपुर की सड़कों का हिस्सा हुई हैं। सबकी कहानी एक। किसी का बेटा उठा तो किसी का बाप। किसी का सुहाग तो किसी की मां का आंचल।

मीडिया में ख़बरें और भी हैं और रहेंगी। कुछ दिनों बाद हम ये सारा मंज़र भूल जाएंगे। जनजीवन सामान्य हो जाएगा। आखिर भूलना जरूरी भी तो है। अगली बार फिर ऐसे एपिसोड देख कर पुरानी बातें और आज का खौफनाक मंज़र याद करने के लिए!

तरूश्री शर्मा

Monday, May 5, 2008

मेरा विश्वास


आस का बादल उड़ता उड़ता,
मुझ तक ही तो आएगा।


रात की पंछी धुंधला धुंधला,

होकर के खो जाएगा।

लम्बे डग हैं,छोटा मग है,

अभी पार हो जाएगा।

रहते रहते हवा का साया,

अपने पंख फैलाएगा....

कुहरा यूं छंट जाएगा,

रोशन एक ख्याल आएगा।

तभी आस का छूटा बादल,

उड़कर मेरे पास आ जाएगा।

Saturday, May 3, 2008

उसकी पहुंच...


सोचती हूं हर पल,
दर्द के गहराते पैमाने,
इतने गहरे कि,
मेरी आवाजों की कोठरियां
गूंजने लगे,
और हंसी का-
एक सिरा तक,
उसे छू न सके।
मैं सोचती हूं कि,
फिर वो -
कैसे पहुंचता है,
वहां तक??