Saturday, October 8, 2011

आखिर कई दिनों बाद वापसी.....



दूर तक बींधती बलखाती नजर को राह के कई नजारे रोक नहीं पाते, तन्हा हो जाते हैं हम और सफर भी.... इर्द-गिर्द का भान हो तो झूठे ही सही, तन्हाई का एहसास नहीं होता। एक सूखा बस गया है भीतर, ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव से अब बरसता ही नहीं कुछ.... एक लम्बी दूरी शायद इसीलिए हो गई। आज आश्चर्यचकित हूं कि एक समय अपनी लेखनी का प्रवाह कैसे थामूं ये सोचती थी और आज क्या लिखूं, ये सोच रही हूं। इतना सूखा, इतना बंजर.... क्यों???
प्रभु, हौसला दे, हिम्मत दे, साहस दे कि एक फसल खड़ी कर सकूं।

5 comments:

Smart Indian said...

शायद यह सब सबके साथ होता है। जब मन आये लिखो। अधिक ज़रूरी काम है तो उसे प्राथमिकता दो। ज़रूरत पड़ेगी तो लेखनी अपने आप लिखवा लेगी। शुभकामनायें!

विक्रांत बेशर्मा said...

तरुश्री जी...घबराइए मत..मॉनसून आएगा तो सूखा खुद बखुद दूर हो जायेगा !!!!!!!!!!!!!!!!!!

शारदा अरोरा said...

तरु श्री आप के ब्लॉग पर पढना बहुत अच्छा लगा ..भाव शून्यता कई बार ऐसी स्थिति में ले आती है ....मगर लेखनी की आदत देर सबेर लौट आती है ..निश्चिन्त रहें .

Bookishqan said...

ये विडंबना है... हो जाता है अक्सर जब आप अंदर से निचुड़ते चले जाते हैं।

Bookishqan said...

होता है अक्सर जब हम अंदर तक निचोड़ लिए जाते हैं तब ऐसी ही स्थितियां बनती हैं।