Thursday, May 2, 2013

गज़ल



कहता रहा शर्मिंदा है, अपराधी है मेरा.
क्यों शब्द सच बयान करते थे उसका.

आँखें टटोलती, वो छिपता रहा सबसे,
सज़ा कम थी, गुनाह् बड़ा था उसका.

गलती करके कहता, बेकसूर हूं मैं,
सच है जिगर कम़जोर रहा उसका.

रातों ने शेर कुर्बान कर दिए जिस पे,
हिसाब बेशक़ तमाम लेना है उसका.

रातों ने छीन लिया सुकून जिस का,
तरु वो आए ना आए, नसीब उसका.

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