
नए साल में नया क्या होगा...
वोही रात वोही दिन..
वही तुम और वही मैं।
झुटपुटे से निकलता चांद,
साथ के छिट-पुट तारे,
पर कौन हमारे...
छिटकी सी धूप,
अलसा के खोया रूप,
कैसा प्रतिरूप...
रात की आसमानी आंच,
इर्द गिर्द लहराता सा बोझ,
किसकी सोच....
दीमक सा दिखता घुन,
रोने लगी है धुन,
कहां रुनझुन....
बरगद की बटेर,
कुहरे की देर,
कौन सवेर...
तारीखों के ढेर,
दिनों के फेर...
कैलेंडरों की सेल...
नए साल में कुछ भी ना होगा नया
सिवाय नए अंकों के...
और मशरूम के जालों के भीतर से,
बाहर आती एक दुर्गंध की तरह,
निकल आएंगी कुछ गंधियाती गालियां...
जो देनी होंगी हमें अपने आप को,
अपने तंत्र को,
सरकार को,
नेताओं को...
और भी ना जाने किसे किसे...
इसमें नया क्या होगा?