
दिल भी ये ज़िद पर अड़ा है किसी बच्चे की तरह,
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं।
राजस्थान में गुर्जरों ने आरक्षण की ज़िद पकड़ ली और अपनी मांगें मनवाने के लिए आम जनता की परेशानी से मुंह मोड़ लिया। कई दिनों पहले पटरियां उखाड़ने की ना सिर्फ धमकी दी, बल्कि डेढ़ किलोमीटर का ट्रेक उखाड़ भी लिया। वक्त था राज्य के बम धमाकों की मार झेलने के बाद दसवां दिन। कितना स्वार्थी हो सकता है एक समूह? क्या संवेदनाएं खुद तक आकर अपनी जिम्मेदारियां खत्म कर लेती हैं? जहां विस्फोट से लड़ने के जज्बे को देखकर देश का मीडिया प्रदेश वासियों की तारीफ करते नहीं अघा रहा था, वहां एक नया एपिसोड जिसमें २१ लोगों के मारे जाने की खबरें सामने आ रही हैं।
अब जब आरक्षण खत्म करने की बातें की जा रही हों,तो गुर्जरों का आरक्षण की मांग को लेकर यूं तांडव मचाना असामयिक सा लगता है। हालांकि आसान है कि और लोगों की तरह पांव पर पांव चढ़ाए हुए मैं भी सरकार को कोस लूं और कई लोगों के मारे जाने का मातम मनाते हुए, सारे कांड को सरकार की दमनकारी नीतियों का नाम दे दूं। लेकिन मैं ना तो विपक्ष की कोई बड़ी नेता हूं और ना गुर्जरों के आंदोलन का हिस्सा। कुछ लोग कह सकते हैं कि जांके पांव फटे ना पड़े बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई। या ये भी कह सकते हैं कि ए सी में बैठकर कम्प्यूटर पर हर्फे लिखने वाला, जमीन से जुड़े आदमी की तपन को ज़ुबान नहीं दे सकता। दरअसल मैं इस किसी भी टिप्पणी से बुरा मानने वाली व्यक्तित्व की स्वामिनी नहीं हूं क्योंकि इस देश में राष्ट्रपति से लेकर आम आदमी तक को कुछ भी सुनना पड़ सकता है। सच कहूं तो मुझे इन लोगों के मारे जाने का उतना ही दुख है जितना विस्फोट में मारे गए लोगों का.... क्योंकि दोनों का कोई दोष नहीं था। दोनों के कंधों पर बंदूक रखी गई थी, एक कांड में बाहर के आतंकवादियों ने तो दूसरे कांड में अपने ही घर के अंदर के अपने बनने वाले नेताओं ने। जनता फिर छली गई.... अपने हक को अपनी जिंदगी से ज्यादा जरूरी मान बैठी? मैं नहीं मानती कि सरकार के पिछले आंदोलनों को दबाने के रवैयों को देखते हुए इस आंदोलन से जुड़े नेता नहीं जानते होंगे कि सरकार का रवैया क्या हो सकता है?
अब तो ये दौर और लम्बा चलेगा..... सेनाएं जमेंगी, बैठकें होंगीं,मारे गए लोगों के परिवार वालों के लिए पैकेज बटेंगे। समझौते को लेकर कई नाटकीय बातें होंगी.... औऱ भी ना जाने क्या क्या? कोई बात नहीं.... अभी कुछ दिन हम इन सब मसलों के गवाह बनेंगे.... कई लोगों का कहना है कि आखिर देखते हैं कि इस खेल में किसकी जीत होती है औऱ किसकी हार? ओफ्फ.... कितना खूनी खेल है ये जीत हार का? बिल्कुल उसी तरह जैसे आज भी पिछड़े गांवों के मैदानों में मुर्गों की खूनी जंग होती है......