Thursday, May 2, 2013

गज़ल



कहता रहा शर्मिंदा है, अपराधी है मेरा.
क्यों शब्द सच बयान करते थे उसका.

आँखें टटोलती, वो छिपता रहा सबसे,
सज़ा कम थी, गुनाह् बड़ा था उसका.

गलती करके कहता, बेकसूर हूं मैं,
सच है जिगर कम़जोर रहा उसका.

रातों ने शेर कुर्बान कर दिए जिस पे,
हिसाब बेशक़ तमाम लेना है उसका.

रातों ने छीन लिया सुकून जिस का,
तरु वो आए ना आए, नसीब उसका.

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Saturday, October 8, 2011

आखिर कई दिनों बाद वापसी.....



दूर तक बींधती बलखाती नजर को राह के कई नजारे रोक नहीं पाते, तन्हा हो जाते हैं हम और सफर भी.... इर्द-गिर्द का भान हो तो झूठे ही सही, तन्हाई का एहसास नहीं होता। एक सूखा बस गया है भीतर, ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव से अब बरसता ही नहीं कुछ.... एक लम्बी दूरी शायद इसीलिए हो गई। आज आश्चर्यचकित हूं कि एक समय अपनी लेखनी का प्रवाह कैसे थामूं ये सोचती थी और आज क्या लिखूं, ये सोच रही हूं। इतना सूखा, इतना बंजर.... क्यों???
प्रभु, हौसला दे, हिम्मत दे, साहस दे कि एक फसल खड़ी कर सकूं।