Wednesday, January 28, 2009
कटी-कटी एक पतंग/जंग जारी है?
एक अरसे तक खुद को कटी पतंग पाया उसने। लेकिन इर्द गिर्द की दूसरी कटी पतंगों से कुछ अलग!!
सबसे ज्यादा फटी पतंग थी लेकिन हौंसला इतना कि एक हाथ मिलते ही सबसे ऊपर उड़ ले। लेकिन वो हाथ....?
हौसलों के बावजूद एक भाव था जिसे वो क्या कहे... अपनी अकमर्ण्यता,नाउम्मीदी या थकान.... समझ नहीं पाती, उसे उन हाथों का इंतजार कभी नहीं रहा। सारी हलचल अपने अंदर रखते हुए फड़फड़ाती थी,अपनी ऊर्जा का उपयोग करने के लिहाज से शायद। हर पल सोचती जरूर थी,ये ऊर्जा उसे कितना ऊपर पहुंचा सकती है.... औऱ वो इसे व्यर्थ गंवा रही है। हां, वो ये जानती थी कि किसी एक दिन अपनी ऊर्जा के सही उपयोग के लिए,आज फड़फड़ाना बेहद जरूरी है ताकि जड़ता हावी ना हो जाए। आस-पास की पतंगें उसे निरा मूर्ख समझती थीं औऱ कुछ उसे अपना नेता मान चुकी थीं। बस यही था जो उसे बताता था कि कौन जड़ है और किसमें अभी जान बाकी है।
दूर कहीं एक देश सा था...कुछ लोग उसे गांव भी कहते थे। उसे वो दुनिया लगता था। दरअसल यहीं वो बनी थी,यहीं उसने कई बार आसमान की ऊंचाइयों का स्वाद चखकर जमीन की धूल चाटी और यहीं से कट कर भी गिरी थी। उसकी पूरी दुनिया का विस्तार वहीं से शुरु होता था और वहीं से खत्म हुआ। कहां आ गिरी...शायद अब कोसों दूर हो। वहीं जाना चाहती है वापस। चौराहे के पास वाले बरगद के नीचे बैठी दादी कहती थी,औरत की फितरत ही होती है,जहां से लात पड़े भावनाओं में बंधकर वहीं लौट आना। तभी तो औरत की स्थिति सुधरती नहीं कभी। क्या मैं भी एक औरत सी हूं... नहीं!!!! सिर झटका उसने। एक दिन आसमान में उड़ते परिंदे के पांव से उसका मांजा लगा कि परिंदा धड़धड़ाता नीचे आ गिरा। मुंह में दाना था उसके... दादी ने कहा था घर लौट रहा था ये अपने बच्चे को खाना खिलाने के लिए...अब अपने पैर के दर्द से ज्यादा इसे बच्चे की भूख का दर्द सताएगा। आखिर औरत है ना ये।
उसे भी तो दर्द होता था उन बच्चों का जो उसे उड़ाकर खूब खुश होते थे...उछलते थे। अब.... ओह। क्या वो भी एक औरत है....हममम।
खैर, सोच का एक सिरा और खुला। एक दिन छुटकु की लाई एक पतंग छुटकी उड़ाने ले चली। जैसे ही छुटकु को पता चला उसने शुरु कर दी छुटकी की पिटाई। रुलाई सुनकर चौपाल से मूंछों वाले चाचा भी चले आए। सारी बात सुनकर लगे छुटकी को डांटने.... पतंग उड़ाना तेरा खेल नहीं है। घर में चूल्हा चौका कर... छोरे को उड़ाने दे पतंग। मतलब क्या मैं लड़कों के ही मनोरंजन का साधन हूं.. तो क्या मैं भी औरत....हां शायद मैं वही हूं, अब तो वो बेशक सिर भी नहीं झटक पाई थी।
खुद को बिल्कुल कटा-फटा और कटा सा पाया उसने। कुछ था जो सिर उठाने को था, और बहुत कुछ था कुचलने के लिए।
ये जंग तो सदियों से जारी है....
जो पंख कल आसमां का फख्र थे,
आज जमीन पर भी भारी है...
कोई कहने ना पाए कि वो सिर्फ नारी है।
Friday, January 16, 2009
बस एक बार....
कुछ ही वक्त गुजरा होगा,
जब तुम मेरे सब कुछ थे..
जिसे मैं नहीं दे पाती थी कोई नाम।
उस धुरी की तरह...
जिसके इर्द-गिर्द,
मेरी जिंदगी सा कुछ टंगा था...
और मैं कोशिश करती थी,
उसे खींच लाने की अपने पास...
कई बार....
लेकिन हर बार नाकाम।
शायद तुमने भांप लिया था-
तभी तो आए थे एक दिन-
लौटाने मेरी जिंदगी सा वो कुछ,
जो बोझ सा टंगा था तुम्हारे इर्द-गिर्द।
हां...
मैं उसे लिवाना कब चाहती थी...
और तुमने भी कब पूछी थी,
मुझसे मेरी ख्वाहिश...
तुम्हीं तो कहते थे ना...
ख्वाहिशें नर्म होती हैं,
मखमली कालीन पर अलसाई सी..
और कभी-कभी,
जिंदगी की रेत पर फिसलती सी।
अरसा हो गया है अब...
और जिंदगी ने देख लिया है,
ख्वाहिशों का फलसफा...
कुछ कुछ तुम्हारे फलसफे से-
मिलता-जुलता सा।
तुम आना एक बार...
देखना कि कैसे ख्वाहिशों से,
बनती है जिंदगी...
रेत का ढेर और
कैसे हवा का एक झोंका,
उस पर बना जाता है
तुम्हारा अक्स...
तुम आना जरूर,
बस एक बार....
आओगे ना?
जब तुम मेरे सब कुछ थे..
जिसे मैं नहीं दे पाती थी कोई नाम।
उस धुरी की तरह...
जिसके इर्द-गिर्द,
मेरी जिंदगी सा कुछ टंगा था...
और मैं कोशिश करती थी,
उसे खींच लाने की अपने पास...
कई बार....
लेकिन हर बार नाकाम।
शायद तुमने भांप लिया था-
तभी तो आए थे एक दिन-
लौटाने मेरी जिंदगी सा वो कुछ,
जो बोझ सा टंगा था तुम्हारे इर्द-गिर्द।
हां...
मैं उसे लिवाना कब चाहती थी...
और तुमने भी कब पूछी थी,
मुझसे मेरी ख्वाहिश...
तुम्हीं तो कहते थे ना...
ख्वाहिशें नर्म होती हैं,
मखमली कालीन पर अलसाई सी..
और कभी-कभी,
जिंदगी की रेत पर फिसलती सी।
अरसा हो गया है अब...
और जिंदगी ने देख लिया है,
ख्वाहिशों का फलसफा...
कुछ कुछ तुम्हारे फलसफे से-
मिलता-जुलता सा।
तुम आना एक बार...
देखना कि कैसे ख्वाहिशों से,
बनती है जिंदगी...
रेत का ढेर और
कैसे हवा का एक झोंका,
उस पर बना जाता है
तुम्हारा अक्स...
तुम आना जरूर,
बस एक बार....
आओगे ना?
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