Thursday, December 25, 2008
क्या होगा?
नए साल में नया क्या होगा...
वोही रात वोही दिन..
वही तुम और वही मैं।
झुटपुटे से निकलता चांद,
साथ के छिट-पुट तारे,
पर कौन हमारे...
छिटकी सी धूप,
अलसा के खोया रूप,
कैसा प्रतिरूप...
रात की आसमानी आंच,
इर्द गिर्द लहराता सा बोझ,
किसकी सोच....
दीमक सा दिखता घुन,
रोने लगी है धुन,
कहां रुनझुन....
बरगद की बटेर,
कुहरे की देर,
कौन सवेर...
तारीखों के ढेर,
दिनों के फेर...
कैलेंडरों की सेल...
नए साल में कुछ भी ना होगा नया
सिवाय नए अंकों के...
और मशरूम के जालों के भीतर से,
बाहर आती एक दुर्गंध की तरह,
निकल आएंगी कुछ गंधियाती गालियां...
जो देनी होंगी हमें अपने आप को,
अपने तंत्र को,
सरकार को,
नेताओं को...
और भी ना जाने किसे किसे...
इसमें नया क्या होगा?
Thursday, December 4, 2008
आपको तो आती होगी आवाज...
इस नाशुक्रे से दौर में आखिर वे क्यों नहीं समझते कि क्या परोस रहे हैं... क्यों और आखिर कब तक... क्या जब तक हमारी आवाज हम तक पहुंचना बंद हो जाए????
मुझे अब कोई आवाज नहीं आती।
भले ही,
बमों के होते हैं धमाके,
कई राउंड चलती है गोलियां,
ग्रेनेड्स भी कभी कभार आ गिरते हैं,
लेकिन मुझे....
कोई आवाज नहीं आती।
औरतें रोती हैं,
आदमी क्रोध में कांपते हैं,
बच्चे भी पूरा मुंह खोलकर-
आंसू गिराते हैं...
लेकिन मुझे...
कोई आवाज नहीं आती।
कहीं दिखते हैं,
चेतावनी के शब्द।
घूमते कमांडो-पुलिस के जवान,
गुजरती हैं,
दनदनाती लालबत्तियां भी,
लेकिन मुझे....
कोई आवाज नहीं आती।
धुंआ दिखता है,
भीड़ दिखती है,
आक्रोश दिखता है,
कोई मोमबत्तियां ले जाते,
तो कोई,
शहीदों को चढ़ाने बड़े बड़े फूल,
कुछ हाथ उठाकर,
कुछ कहने का अभिनय करते से,
और कुछ
नेता से दिखते दरिंदे सिर झुकाकर मौन,
कुछ आस्तीनों में रेंगती सी परछाइयां,
कुछ भैंस के आगे बजती सी बीन,
लेकिन मुझे...
कोई आवाज नहीं आती।
उफ्फ...कोफ्त है या...
कानों में क्यों अहसास नहीं,
आखिर क्यों...
क्यों,वक्त की आवाज आज साथ नहीं।
कहीं ये बहरापन?????
नहीं.. मुझे अब भी आती है आवाज,
हाथ के रिमोट पर अंगुलियों के जाते ही,
ये है वो आतंकवादी...,
ये उसका परिवार..,
ये उसकी मां..,
ये उसकी बहिन..,
ये पिता..,
ये बेचारा, परिवार बेचारा,
मुल्क बेचारा,जनता बेचारी,
नेता बेचारा,
बम बेचारे, आका बेचारे
और उफ्फ्फ.... कितने बेचारे हैं ये कान।
तरूश्री शर्मा
मुझे अब कोई आवाज नहीं आती।
भले ही,
बमों के होते हैं धमाके,
कई राउंड चलती है गोलियां,
ग्रेनेड्स भी कभी कभार आ गिरते हैं,
लेकिन मुझे....
कोई आवाज नहीं आती।
औरतें रोती हैं,
आदमी क्रोध में कांपते हैं,
बच्चे भी पूरा मुंह खोलकर-
आंसू गिराते हैं...
लेकिन मुझे...
कोई आवाज नहीं आती।
कहीं दिखते हैं,
चेतावनी के शब्द।
घूमते कमांडो-पुलिस के जवान,
गुजरती हैं,
दनदनाती लालबत्तियां भी,
लेकिन मुझे....
कोई आवाज नहीं आती।
धुंआ दिखता है,
भीड़ दिखती है,
आक्रोश दिखता है,
कोई मोमबत्तियां ले जाते,
तो कोई,
शहीदों को चढ़ाने बड़े बड़े फूल,
कुछ हाथ उठाकर,
कुछ कहने का अभिनय करते से,
और कुछ
नेता से दिखते दरिंदे सिर झुकाकर मौन,
कुछ आस्तीनों में रेंगती सी परछाइयां,
कुछ भैंस के आगे बजती सी बीन,
लेकिन मुझे...
कोई आवाज नहीं आती।
उफ्फ...कोफ्त है या...
कानों में क्यों अहसास नहीं,
आखिर क्यों...
क्यों,वक्त की आवाज आज साथ नहीं।
कहीं ये बहरापन?????
नहीं.. मुझे अब भी आती है आवाज,
हाथ के रिमोट पर अंगुलियों के जाते ही,
ये है वो आतंकवादी...,
ये उसका परिवार..,
ये उसकी मां..,
ये उसकी बहिन..,
ये पिता..,
ये बेचारा, परिवार बेचारा,
मुल्क बेचारा,जनता बेचारी,
नेता बेचारा,
बम बेचारे, आका बेचारे
और उफ्फ्फ.... कितने बेचारे हैं ये कान।
तरूश्री शर्मा
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